निमिया के डाढ़ मइया...
पिछली सदी की बात है। आज ही की रात थी यानी अष्टमी की। भोजपुरी भाषी इलाके में घर की सबसे बुजुर्ग महिला ' निमिया के डाढ़ मइया लावेली झुलुहवा के झूली झूली ना, मइया गावेली गितिया के झूली झूली ना' गाते गाते झूल रही थी। मइया से ज्यादा शायद नींद का पहरा था। आधी रात हो चुकी थी और अष्टमी की परम्परा के मुताबिक घर का मुख्य दरवाजा खुला था। महिला को तभी आंगन में कोई आकृति दिखी। गीत, 'झूलत झूलत मइया के लगली पियासिया कि चली भइली ना, मलहोरिया दुअरिया कि चली भइली ना' तक पहुंच चुका था। महिला विभोर हो गई। साक्षात मां आंगन में। घर के पुरूष बाहर दरवाजे पर सो रहे थे। सो बहू को जगाया, पोती को भो। सबको मां से आशीर्वाद दिलवाया। गीत वहां तक पहुंच चुका था जब मइया पानी पीने के बाद तृप्त होकर माली की पत्नी से कहती हैं, जैसे तू हमके जुड़ववलु ए मालिन ओइसे, तोहार पतोहिया जुड़ाव के ओइसे। फिर वह आकृति गायब हो गई। महिला की नींद टूट चुकी थी और वह रोमांचित होकर सबको यह घटना सुनने के लिए व्याकुल थी। सुबह डगर बजने के साथ पूजा समाप्त हुई। लेकिन यह क्या, आंगन में रखे सारे बर्तन गायब थे। यह बात साफ हो चुकी थी रात...