तू चांद है...

वह चांद जो सदियों से रोज़ छत पर आता है, मुंडेर पर आता है, नदी किनारे आता है, आंगन में आता है, बच्चों के लिए सोने के कटोरे में दूध-भात लाता है, उनके साथ खेलता है वह हमसे इतनी दूर है, यकीन नहीं होता।

कहा जाता है कि जब भगवान राम का जन्म हुआ तो सूर्यास्त हो ही नहीं रहा था। जब सारे देवी-देवताओं ने भगवान राम के दर्शन कर लिए तब रात हुई और चांद को भगवान राम का दर्शन करने का मौका मिला था। चांद ने उलाहना भरे शब्दों में इसकी शिकायत राम से की थी और यह गलती मानते हुए राम ने अपने नाम के साथ ही चन्द्र को स्थापित किया। सूर्यवंशी राम इसीलिए रामचंद्र हुए।

वह चांद जो रात में रास्ता दिखाता है, कभी किसी चौबारे पर चमकता है तो कभी कहीं जुल्फों की घनी छांव में छुपने की कोशिश करता है, कभी किसी के बाजुओं में कसमसाता है तो कहीं किसी के होठों पर फिसलता है। कभी किसी की करधन में समाता है तो कभी किसी की हंसली बनकर नितांत व्यक्तिगत क्षणों में चुभन का अहसास कराता है। वह चांद जो हर पल हमारे साथ होता है, वह इतनी दूर है कि पहुंचने में 48 दिन लग गए। वह भी दो किमी प्रति सेकंड की स्पीड पर।

वह चांद जो पट से नदियों में समा जाता है, खट से बच्चों के पास आ जाता है, चट से किसी के गालों की लाली को बढ़ा जाता है, झट से खेतों में उतर जाता है, उसकी सतह पर उतरने में ही कई मिनट लग जाएंगे, विश्वास नहीं होता। विश्वास यह भी नहीं होता कि आखिरी मिनट इतना भारी पड़ जाएगा कि दो किमी की दूरी भी सलीके से तय नहीं हो पाएगी। क्या वाकई विक्रम चांद को इतना करीब पाकर खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाया होगा और मिलन के आवेग में गति घटाने के बजाय बढ़ाकर खुद को नष्ट कर लिया होगा।

कभी कौशल्या ने राम को गोद में लेकर गाया होगा -चन्दा मामा दूर के, पुआ पकावे गुड़ के..... कभी जसोदा ने कृष्ण के लिए आरजू की होगी- ए चंदा आव ना अंगनवा के बीच, कन्हैया हमरो खेलिहें नू हो। कभी ग़ालिब ने यह दुआ की होगी-हमारा चांद दिख जाए, हमारी ईद हो जाए कभी प्रेमचंद ने नमक के दरोगा के माध्यम से मासिक वेतन और पूर्णमासी के चांद का फलसफा पेश किया होगा और कभी वर्षा वशिष्ठ ने शाहजहांपुर से नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में आकर कहा होगा-मुझे चांद चाहिए।

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