ऐसे सभी टीचर्स को नमन
हाल ही में दिवंगत हुए गीतकार-कवि नीरज के बचपन के दिन थे। मुफलिसी के, गुरबत के। एटा के सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। परिवार की गरीबी के कारण स्कूल की फीस माफ थी। एक बार एक नम्बर से फेल हो गए। इसके बाद पढ़ाई जारी रखने के लिए स्कूल की फीस भरनी पड़ती। नीरज अपने शिक्षक के पास गए और उनसे कहा कि एक नम्बर उन्हें दे दिया जाए ताकि उनकी पढ़ाई चलती रहे। बकौल नीरज, उनके टीचर ने कहा-गोपाल बाबू, तुम गरीब के लड़के हो। जिंदगी में तुम्हारी कोई मदद नहीं करेगा। तुम जीवन में जो बनना, फर्स्ट क्लास बनना। चाहे चोर बनना, पॉकेटमार बनना या कवि बनना। पास मैं तुम्हें करूंगा नहीं, हां फीस तुम्हारी जरूर भर दूंगा। सोचिये, 1930-40 के दशक में टीचर को क्या सैलरी मिलती होगी, लेकिन टीचर तब फटीचर नहीं हुए थे।
(नीरज का यह इंटरव्यू इंटरनेट पर भी उपलब्ध है)
इस घटना के कई साल बाद 1955 नें नागार्जुन ने 'मास्टर' कविता लिखी जिसमें स्कूलों की बदहाली और एक शिक्षक के स्वाभिमान का जिक्र था। कविता की पंक्तियां थीं-
घुन खाये शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बांचे
फ़टी भीत है, छत चूती है, आले पर बिसतुइया नाचे
बरसाकर बेबस बच्चों पर मिनट मिनट में पांच तमाचे
दुखरन मास्टर गढ़ते रहते किसी तरह आदम के सांचे।
लेकिन उसी दुखरन मास्टर ने जब बच्चों की बात आई तो प्रदेश के मंत्री को कड़ा विरोध पत्र लिख डाला। उन्होंने मंत्री को लिखा-
प्रभुता पाई काहि मद नाहि, तुलसी बाबा भले कह गए
जिसमें वाजिदअली बह गया, उसी बाढ़ में आप बह गए।
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फटी भीत है, छत चूती है, आले पर बिसतुइया नाचे
बरसा कर बेबस बच्चों पर मिनट मिनट पर पांच तमाचे
दुखरन मास्टर गढ़ते रहते किसी तरह आदम के सांचे।
अरे अभी उस रोज़ वहां पर सरेआम जंक्शन बाज़ार में
शिक्षा मंत्री स्वयं पधारे, चम-चम करती सजी कार में
ताने थे बंदूक सिपाही, खड़ी रही जीपें कतार में
चटा गए धीरज का इमरित, सुना गए बातें उधार में
चार कोस से दौड़े आए जब मंत्री की सुनी अवाई
लड़कों ने बेले बरसाए, मास्टर ने माला पहनाई
संगीनों की घनी छांव में हिली माल, मूरत मुसकाई
तंबू में घुस गए मिनिस्टर, मास्टर पर कुछ दया न आई।
अंदर जाकर तंबू में ही चलो चलें दुख-दर्द सुनाएं
नहीं ‘अकेला मैं ही जाऊं, कहीं भीड़ में वह घबराएं
बचपन के परिचित ठहरे, हम क्यों न चार बात कर आएं
मौका पाकर विद्यालय की बुरी दशा पर ध्यान दिलाएं।’
सुन कर बात गुरूजी की फिर हां-हां बोले लड़के सारे
‘हम जब तक सुसता भी लेंगे आगे बढ़ कर कुआं किनारे।
हाथ हिला कर मास्टर बोला, जाओ बच्चों, जाओ प्यारे
चने चबाकर पानी पीना सूख रहे हैं हलक तुम्हारे।’
फाटक पर पहुंचे तो देखा, डटे हुए थे दो नेपाली
हाथों में संगीन संभाले, लटक रही थी निजी भुजाली
कहां जाएगा? वे गुर्राए, आंखों में उतराई लाली
दुखरन का यूं दिल दुखी हुआ, सुन सूखा तत सूखी गाली
मास्टर बोले, ‘यों मत कहना, पढ़ा लिखा हूं, मैं हूं शिक्षक
तुम भी हो जनता के सेवक, मैं भी हूं जनता का सेवक’।
फिर तो वे धकियाकर बोले, भाग भाग, जा मत कर बक-बक
हम फौजी हैं, नहीं समझते क्या होता है सिच्क्षक सेवक
कुछ दिन बीते मास्टर ने यह कड़ा विरोध पत्र लिख डाला
‘ताम झाम थे प्रजातंत्र के, लटका था सामंती ताला
मंत्री जी, इतनी जल्दी, क्या आज़ादी का पिटा दिवाला
अजी आपको उस दिन मैंने नाहक ही पहनाई माला’
और लिखा, ‘उस रोज आपसे भीख मांगने नहीं गया था
आप नए थे, नया ठाठ था, लेकिन मैं तो नहीं नया था
भूल गए क्या, अजी आपका छोटा भाई फेल हुआ था
और आपने मुझे जेल से मर्मस्पर्शी पत्र लिखा था।
प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं, तुलसी बाबा भले कह गए
जिसमें वाजिद अली बह गया उसी बाढ़ में आप बह गए
आप बने शिक्षा मंत्री तो देहातों के स्कूल ढह गए
हम तो करते रहे पढ़उनी, जेल न जा के यहीं रह गए…
उपदेशों की धुंआधार में अकुलाता शिक्षक बेचारा
अजी आपको लगता होगा सुखमय यह भूमंडल सारा
लिखा अंत में ‘ध्यान दीजिए, बहुत दिनों से मिला न वेतन
किससे कहूं, दिखाई पड़ते कहीं नहीं अब वे नेता गण
पिछली दफे किया था हमने पटने में जा जा के अनशन’
स्वयं अर्थ मंत्री जी निकले, वह दे गए हमें आश्वासन
और क्या लिखूं इन देहाती स्कूलों पर भी दया कीजिए
दीन-हीन छात्र गुरूओं की कुछ भी तो सुध आप लीजिए
हटे मिटे यह निपटज हालत, प्रभु ग्रामीणों पर पसीजिए
कई फंड है उनमें से अब हमको वाजिब ‘एड’ दीजिए