कोसने से पहले सोचिए
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यह है गाजियाबाद संसदीय क्षेत्र का दलित मोहल्ला बीचफटा। यहां लोगों ने साफ कहा कि उनके कच्चे मकान प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत पक्के हो रहे हैं और वे बीजेपी के अलावा किसी और को वोट नहीं देंगे। |
यह सवाल कांग्रेस से भी है और लेफ्ट से भी। आप अपने समर्थकों के साथ आभासी दुनिया में मोदी को कोसते रहे। राजस्थान, एमपी और छतीसगढ़ में जीत के बाद आप इतराते रहे लेकिन यह समझ नहीं पाए कि वहां की जनता का गुस्सा इस हार के साथ उतर गया है और वे लोकसभा चुनाव में मोदी के साथ आएंगे। राजस्थान ने तो खुलकर कहा था कि मोदी तुझसे बैर नहीं, रानी तेरी खैर नहीं। आप नारे का मर्म समझने की जगह कोसने में तल्लीन रहे।
एनसीआर में इखलाक और जुनैद हत्याकांड हुए। सीपीएम की वृंदा करात की आवाजाही वहां लगी रही। उसी दौरान दिल्ली में एक मुस्लिम लड़की से प्रेम करनेवाले फोटोग्राफर अंकित सक्सेना की हत्या कर दी गई। वृंदा क्या, कोई अदना वामपंथी भी नहीं गया। अभी दिल्ली में अपनी लड़कीं से छेड़छाड़ करने का विरोध करने पर एक शख्स की हत्या कर दी गई, विरोध में लाल झंडा नहीं उठा। लेकिन कोसने का किस्सा चलता रहा।
कांग्रेस क्या सोचकर बिहार में राजद की गोद में बैठी थी? जो पार्टी आज भी शहाबुद्दीन के साथ खड़ी हो, उससे गलबहियां क्या सोचकर की थी? जिस दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष सजायाफ्ता मुजरिम हो, वहां किस भले की उम्मीद थी? लेकिन इस पर विचार करने के बजाय कोस पुराण चालू रखिये।
पांच साल में कितनी बूथ लेवल मीटिंग कोसने वालों ने कराई? कितने पन्ना प्रमुख बनाये। कितने लोगों से संवाद किये। इन सब काम के बजाय आप सोशल मीडिया पर विचरते रहे। अब कोसिये।
जिनके घर ढिबरी जलती थी, उनके यहां एलईडी बल्ब लगे, लकड़ी के चूल्हे की जगह गैस सिलेंडर आया, मोतियाबिंद और हाइड्रोसिल जैसा मामूली ऑपेरशन नहीं करा सकने वाले आयुष्मान योजना में कवर हुए, इसे देखने के बजाय आप उपहास में व्यस्त रहे, अब कोसिए।
एक कहावत है जुआ, युद्ध, व्यापार इन तीनों में लगे रहिए तो अंतत: सफलता मिलती ही है। राजनीति को भी इसमें शामिल किया जा सकता है और चुनाव को भी। अमित शाह और नरेंद्र मोदी चौबीसों घंटे और एक चुनाव खत्म होते ही दूसरे की तैयारी करने वाले रणनीतिकारों में शुमार हैं। दूसरी तरफ विरोधी दलों के पदाधिकारी शाम में झक सफेद कुर्ते पायजामे में पार्टी दफ्तरों के इर्द-गिर्द मंडराने वाले साबित हुए।
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