CAA -सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला

इस सरहदी जिले में कम अज़ कम (कम से कम) 5 हज़ार पाकिस्तान से आये शरणार्थी हैं। शायद ही ऐसा कोई मुस्लिम परिवार हो, जिसकी रिश्तेदारी पाकिस्तान में न हो, फिर भी शांति है। CAA को लेकर दिल्ली-लखनऊ की तरह बवाल नहीं है। तारबंदी के बाद उस पार जाना मुमकिन नहीं, फिर भी मलाल नहीं। चौड़ी सड़क है जो आमतौर पर सेना और बीएसएफ के लिए है, गांव इससे जुड़े नहीं हैं, फिर भी कोई शिकवा नहीं। भेड़ और गाय चराने के अलावा रोज़गार नहीं, फिर भी शिकन नहीं। नवंबर से फरवरी तक 6 हज़ार रुपये महीने पर 29 दिन तक ड्राइवर की नौकरी, उस एक दिन की उम्मीद में 29 दिन कब कटते हैं, पता नहीं चलता। यहां लखनऊ-दिल्ली की तरह पढ़े-लिखे लोग नहीं हैं। और यही शांति की वजह है।  यह न तो अदब का शहर लखनऊ होने का दम भरता है न दिलवालों की दिल्ली होने का दावा करता है।यह जैसलमेर है।

कई गांव सड़कों से जुड़े नहीं हैं। लोग दो तीन परिवार के समूह में भी रहते हैं। सिर्फ बिजली का कनेक्शन लेने के लिए उन्हें पते में ढाणी लिखना पड़ता है, क्योंकि इससे कम पर कनेक्शन नहीं मिलता। सड़क चाहिए भी नहीं,  क्योंकि लोगों को लगता है कि बाहर से आये लोग उन्हें तंग करेंगे। विकास की पगडंडी का नहीं पहुंचना ही इस शांति की वजह हो सकती है।

रामगढ़ तहसील के एक गांव (नाम बताया लेकिन उच्चारण समझ में नहीं आया) के ड्राइवर अलू खान ने बताया था, उसकी बहन की शादी कई साल पहले पाकिस्तान में हुई थी। कितनी दूरी है, यह किमी में नहीं पता, लेकिन इतना मालूम है कि ऊंट पर विदाई हुई थी और दो दिन में ससुराल पहुंची थी। लेकिन तारबंदी से दिक्कत नहीं, क्योंकि यह सभी मानते हैं कि उससे पहले हेरोइन की स्मगलिंग होती थी। वाघा बॉर्डर बन्द होने से पाकिस्तान जाना सम्भव नहीं, फिर भी वहां से आकर रह रहे शरणार्थियों के प्रति कोई दुर्भावना नहीं, न भारत से भगाए जाने की आशंका। अलू निरक्षर है।
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है,
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला।

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