लाजिम है कि हम भी देखेंगे....
फ़ैज़
अहमद फ़ैज़ के पाक वतन में जो ननकाना साहिब में हो रहा है, हम देख रहे हैं।
हम ही नहीं, सब कुछ देख रहीं तारीखें भी इसकी गवाह होंगी कि 'बस नाम रहेगा
अल्ला का' का क्या अर्थ निकाला गया? 'सब तख्त गिराए जाएंगे' का मतलब यह हो
गया कि ननकाना साहिब की जगह गुलाम मुस्तफा स्थापित होंगे। हमारे दौर में यह
सब हो रहा है तो लाज़िम है कि हम भी देखेंगे।
कुछ दिन
पहले हमने फ़ैज़ की पैदाइश वाले वतन में भी लाज़िमी तौर पर देखा था। सत्य
ब्रह्म (अनलहक) के करीब तक अपने शोध ले जाने वाले आला दर्जे के संस्थान आईआईटी में
'जब अर्ज़े खुद के काबे से, सब बुत उठवाए जाएंगे' का अर्थ हिन्दू विरोधी
लगाया गया, उसे भी हमने देखा था और आगे जांच कमिटी की जो रिपोर्ट आएगी, उसे
भी देखेंगे। डर इस बात का है कि कहीं वह दिन न देखना पड़े जब कोई कर्बला की
लड़ाई को भी दो धर्मों का बता दे और यज़ीद को हिन्दू या ईसाई।
देखने
के और भी उदाहरण हैं। जहांगीर ने नूरजहां के कबूतर उड़ाने की अदा में पता
नहीं क्या देखा था कि नूरजहां ब्याह के बाद भी उसकी आंखों में तब तक बसी रही जब तक जहांगीर ने उससे शादी नहीं कर ली। बाबर ने पता नहीं कैसे हिंदुस्तान की धन संपदा उतनी दूर
से देख ली थी? नादिरशाह ने भी ईरान में बैठकर हिंदुस्तान का वैभव देख लिया
था और ट्रम्प ने अमेरिका से ईरान में बैठे सुलेमानी का टेरर।
नहीं
दिखने के भी उदाहरण हैं। इमरान खान को पाकिस्तान में आतंकी कैम्प नहीं
दिखते, न ही pok में उनके खिलाफ होने वाले प्रदर्शन। भारत में प्रोग्रेसिव
(प्रगतिशील) लेंस वाला चश्मा लगाने वालों को कोटा में बच्चों की मौत नहीं
दिखती, जबकि इसी लेंस से उन्हें गोरखपुर में मर रहे बच्चे साफ-साफ दिख रहे
थे। थर्ड फ्रंट का सपना देखने वालीं आंखें यह नहीं देख रहीं कि सत्ता विरोध
के नाम पर वे कैसे राजनीतिक मंच को दो ध्रुवों में सीमित कर रही हैं।
बहरहाल जहीर अहमद ताज का शेर देखिए
दिल देख रहे हैं वो जिगर देख रहे हैं
छोड़े हुए तीरों का असर देख रहे हैं।
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