दो जून की रोटी
2 जून, महज एक तारीख है, जो हर साल आती है। लेकिन वही दो जून शब्द होकर और मुहावरा बनकर जब रोटी के साथ चुपड़ता है, तो उससे रोजाना का सम्बन्ध हो जाता है। और समाज के बड़े वर्ग की गतिविधियां इसी दो जून की रोटी के इर्द-गिर्द चक्कर काटती हैं। रोटी जो 1857 में क्रांति का संदेश फैलाती थी, वही कभी-कभी पलायन और इससे ऊपजे आंदोलन का भी प्रतीक बन जाती है।
आज फिर तारीख के लिहाज से 2 जून है। लेकिन रोटी के लिहाज से ऐसा 2 जून इससे पहले शायद ही आया हो। जिनके पूर्वज सम्मान से दो जून की रोटी की तलाश में अपना गांव-घर छोड़ आये थे, उनके वंशज इसकी चिंता छोड़कर रिवर्स पलायन कर रहे हैं। तारीखें इनकी पदयात्रा की भी गवाह हैं और एक जून से जो अनलॉक हुआ, उसके बाद कुछ सुविधाजनक सफर का भी। एक जून को चलीं कई ट्रेनें आज यानी 2 जून को अपने गंतव्य तक पहुंचेंगी तो वह ट्रेन उन महिलाओं को बैरन नहीं लगेगी जो नौकरी की बेचारगी में उनके प्रियतम को उनसे दूर ले जाती हैं। 2 जून को इन रेलगाड़ियों की यह पहचान बदल जाएगी। लेकिन अहम सवाल यह है कि गांव में दो जून की रोटी का इंतजाम कैसे होगा? राहत कैम्प और क़वारन्टीन सेंटर के बाद क्या?
इस दो जून की रोटी ने आंदोलनों का पूरा फलसफा बदल दिया। शहरों के इंडस्ट्रियल एरिया में लेबर यूनियनें चलती हैं लेकिन मजदूर तालाबन्दी से कतराते हैं। वे धरने में शामिल होने से बचते हैं क्योंकि उन्हें किराए के घर में बीवी-बच्चों के लिये दो जून की रोटी का इंतज़ाम करना होता है। और साथ ही देनी होती है स्कूल की फीस, लिहाजा प्रदर्शन में अधिकतर श्रमिक संगठनों के पदाधिकारी ही होते हैं।
आज श्रमिक उन शहरों को छोड़कर जा रहे हैं, जिस शहर ने उन्हें काम दिया, नाम दिया, उनके सपनों को उड़ान भरने के लिए पंख दिए, उनकी मिडल क्लास हिचकिचाहट कम की और सम्मान के साथ दो जून की रोटी का इंतज़ाम किया। इन्हीं शहरों की मलिन बस्तियों ने स्लमडॉग पैदा किये, लेकिन उसी शहर में जब उन्होंने खुद को बर्तन लेकर फ्री राशन की कतारों में खड़ा पाया तो शायद आत्मसम्मान भूख पर भारी पड़ने लगा और दो जून की रोटी छोड़कर वे भूखी-प्यासी यात्रा पर निकल पड़े। हो सकता है इनमें से कई ने प्राइमरी क्लासों में रामवृक्ष बेनीपुरी की 'गेहूं और गुलाब' पढ़ी हो और अब भी यकीन करते हों कि मानव शरीर की संरचना में दिमाग का स्थान ऊपर है और पेट का नीचे।
दुनिया ने कवि धूमिल की नज़रों से रोटी खाने वाले, रोटी बेलने वाले और रोटी से खेलने वाले देखे हैं। आज की तारीख इस द्वंद्व का भी गवाह होगी कि क्या दो जून की रोटी ही सब कुछ है या आत्मसम्मान के सामने उसकी हैसियत कम है?
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