किधर हो कॉमरेड?

राजनीतिक क्षेत्र की पुरानी कहावत है कि किशोरावस्था और युवावस्था की संधि बेला में आप कम्युनिस्ट नहीं हुए तो आपके पास दिल नहीं है और कुछ समय बाद आपने कम्युनिज्म छोड़ा नहीं तो आपके पास दिमाग नहीं है। यह थ्योरी कितनी सही है, पता नहीं, लेकिन लगातार कम्युनिस्ट विचारधारा और उसमें से भी छात्र नेताओं का विपरीत विचारधारा वाले दलों में जाना तो इसे सही ही साबित करता है। दिमाग परिपक्व होते ही वे नए दल में चले जा रहे हैं। जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार कांग्रेस में चले गए हैं। वह एआईएसएफ से जुड़े थे जो सीपीआई की स्टूडेंट विंग है। 2019 के लोकसभा चुनाव में सीपीआई ने उन्हें बेगूसराय से कैंडिडेट बनाया था लेकिन वह बीजेपी के गिरिराज सिंह से हार गए थे। कन्हैया कुमार के समर्थन में देश भर से कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े लोगों का मजमा बेगूसराय में लगा रहा था, जिसे कई लोग लेनिनग्राद बताते हैं। एक सवाल यह उठता है कि क्या सीपीआई कांग्रेस के करीब है? इमरजेंसी के दिनों की बात करें तो सीपीआई यानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़ी थी। इमरजेंसी के विरोध में होने वाली सभाओं को डिस्टर्ब करने का आरोप भी सीपीआई पर है। यूपीए के शासनकाल में कम्युनिस्ट पार्टियां सरकार के समर्थन में थीं। इससे पहले जेएनयू में छात्र संघ के अध्यक्ष थे संदीप सिंह। संदीप सिंह आइसा के थे, जो सीपीआई एमएल की स्टूडेंट विंग है। राग वाम गाते-गाते संदीप राहुल और प्रियंका के करीबी हो जाएंगे, किसी को यह इल्म नहीं था, लेकिन ऐसा हुआ। और संदीप सिंह कांग्रेस के प्रति या गांधी परिवार के प्रति इतने समर्पित हुए कि प्रियंका गांधी की चंदौली यात्रा के दौरान उन पर एक पत्रकार से बदतमीजी के आरोप भी लगे। जेएनयू का पूरा नाम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय है, लेकिन कैंपस के अंदर कभी कांग्रेस आ एनएसयूआई का असर नहीं रहा। अलबत्ता एबीवीपी कभी-कभार सीट निकाल लेती है। लेकिन यहां से तैयार कम्युनिस्ट पार्टियों के युवा नेता कांग्रेस के हो जाते हैं। (फोटो गूगल से)

Comments

Anonymous said…
नमस्कार नवीन,
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धन्यवाद

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Naveen Krishna said…
आपको मेरे लेक अच्छे लगे, इसके लिए धन्यवाद। हम संपर्क में रहेंगे।

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