कैसे-कैसे रावण !
राम विमुख अस हाल तुम्हारा, रहा न कुल कोऊ रोवनिहारा।
मानस में तुलसी ने रावण वध के बाद के हालात पर यह चौपाई लिखी है कि राम से विमुख होने पर उसके वंश में कोई रोने वाला नहीं बचा। इसमें थोड़ी अतिश्योक्ति है, क्योंकि विभीषण चिरंजीवी हैं और वह रावण कुल के ही हैं। लेकिन राम से विमुख होने का नुकसान तो रावण को हुआ ही।
राम जन-जन में हैं। चैता और चैती गीतों में हैं, कजरी में हैं, शादी के मंडप में बैठे दूल्हे में हैं, जोगियों के निर्गुण में हैं, सुबह-सुबह के अभिवादन में हैं, हारे के सहारे में हैं और श्मशान घाट की ओर जाते हुए सत्य का बोध कराने में हैं।
राम ने कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। सदैव दूसरों की मर्यादा का सम्मान किया। केवट प्रसंग के दौरान राम चाहते तो आराम से चलकर नदी पार कर जाते। केवट कहता है :
एहि घाट तेँ थोरिक दूरि अहै कटिलौं जलथाह देखाइहौं जू
इस घाट से थोड़ी ही दूर पर कमर तक पानी है, वहां से नदी पार कर जाइये। लेकिन राम को यहां गंगा की मर्यादा की चिंता है। उंस गंगा की, जो उनके चरणों से निकलकर शंकर की जटा में समाई हैं
जिन चरणन से निकलि सुरसरि, शंकर जटा समाई
जटाशंकरी नाम परयौ है त्रिभुवन तारन आई।
गंगा को बिना किसी साधन के लांघना उनकी मर्यादा पर आघात होता।
भारत में राष्ट्रीय स्तर की एक राजनीतिक पार्टी अपने स्वर्ण काल के दिनों में राम से विमुख होने लगी थी। उसको इल्हाम हुआ कि राम सिर्फ अयोध्या के टेंट में हैं। जन-जन में तो हम हैं। नतीजतन पार्टी में रावण सा अहंकार आने लगा। विभीषण जैसे उचित सलाह देने वालों को किनारे किया जाने लगा। घर के अंदर मचे कलह से राज्य हाथ से निकल रहे हैं। संभलने की कोई सूरत दिख नहीं रही।
आज कई इलाकों में नीलकंठ (पक्षी) देखने की परंपरा है। यह रवायत पर्यावरण की रक्षा के लिए विकसित हुई थी। गांव के आसपास पेड़-पौधे रहेंगे तो भांति-भांति के परिंदों का बसेरा होगा। नीलकंठ भी उनमें शुमार होगा। जब पेड़ कटने लगे तब बहेलिये जंगल से नीलकंठ पकड़कर दशहरे के दिन घर-घर ले जाकर दर्शन कराने लगे। बदले में उन्हें दक्षिणा मिलती। माना जाता है कि नीलकंठ यह कामना करता है है कि जिस हालात में हो, वैसे ही रहो। इसलिए कई लोग नए कपड़े पहनने के बाद ही इसे देखना चाहते हैं। कई जगहों पर दशहरे ले दिन नए कपड़े पहनने की परंपरा है। लेकिन जो परिंदा बहेलिये के पंजे में होगा, डरा-सहमा और भूखा-प्यासा होगा, वह क्या किसी को दुआ देगा? हमारे अंदर भी रावण जैसा घमंड है कि धरती सिर्फ मनुष्यों के लिए है। रावण ने तो कम से कम अशोक वाटिका बनवाई थी, हम तो वन-उपवन खत्म करने के बाद इक्के-दुक्के पेड़ों को भी कुल्हाड़ी लिए तलाश रहे हैं।
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