अदब के इस अंजुमन को आदाब
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यह था स्वागत का अंदाज |
तहजीब महफिलों की और शोर मयकदों का
माशूक बंदगी है, माशूक ही खुदा है
मंदिर की घंटियों में बोले अदा का जादू
सर चढ़ के बोलता है उर्दू जबां का जादू...
वहां गायकी और शायरी की महफिल जमी थी, बहस-मुबाहिसों का दौर चल रहा था, मुक्ताकाश मंच और बंद सभागार थे और सर चढ़कर बोल रहा था उर्दू जबां का जादू।और यह सफर दिल्ली के केंद्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र तक लाने-ले जाने वाली फ्री शटल बस में ही शुरू हो जा रहा था। रेख्ता के इस जश्न में शामिल होने जा रहे लोगों का इस्तकबाल बस में एक वॉलंटियर अदब और नफासत से पेश शेर से करता था और बमुश्किल पांच मिनट के सफर में प्रोग्राम के मिजाज का तआरुफ करा देता था। तहजीब की झलक भी 18 फरवरी को दिखी जब इस बस का एक शीशा टूटकर गिर गया। दिल्ली की मूल सभ्यता से हटकर इस वॉलंटियर ने चेहरे पर चिता का भाव लाकर पूछा था कि किसी को लगी तो नहीं?
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शाम में इस तरह जगमगा रही थी अदब की महफिल |

उसी समय दीवान-ए-खास यानी ऑडिटोरियम में ‘उर्दू का अदालती लहजा’ विषय पर विमर्श हो रहा थाष वहां किसी लोअर कोर्ट में हो रही किसी दिलचस्प सुनवाई जैसा नजारा था। मंच पर रिटायर्ड जस्टिस टीएस ठाकुर और आफताब आलम मौजूद थे। पहले तो लगा कि यहां भी उन शब्दों पर चिंता जताई जा रही होगी जो FIR लिखने में यूज होती है लेकिन मंच से पेश राहत इंदौरी के इस शेर ने ‘इंसाफ जालिमों की हिमायत में जाएगा. ये हालत है तो कौन अदालत में जाएगा’ सारी शंका दूर कर दी। फिर तो चाहे जज हों या उनके साथ बैठे कांग्रेसी लीडर सलमान खुर्शीद सबने अदालती लहजे को लजीज बना दिया। गालिब से लेकर अकबर इलाहाबादी तक के शेर पेश कर बतााय गया कि इस मुद्दे पर भी उर्दू में कम नहीं लिखा गया। मॉडरेटर सैफ महमूद ने कहा कि कोई वकील बहुत तजुर्बेकार होता है गालिब एक तजुर्बेकार मुवक्किल थे। अपने केस के सिलसिले में कलकत्ते तक चले जाते थे। एक जस्टिस ने मजेदार घटना सुनाई। जब वह पटना हाई कोर्ट में थे तब कई बार वकीलों की बहस उनके सिर के ऊपर से गुजरने लगती थी। ऐसे में वह नोट पैड पर कुछ-कुछ नोट करते रहते थे। उसका अदालती कार्यवाही से मतलब नहीं होता था बल्कि उस दौरान वह अपने प्रिय शायरों के कलाम लिखते रहते थे। यह भी कहा गया कि अगर जज का मिजाज शायराना है तो वकील किसी कानूनी रेफरेंस के बजाय एक माकूल शेर से मुकदमा अपने फेवर में करा सकता है। हालांकि इसका साइड इफेक्ट भी है क्योंकि कई वकील बेमौके के शेर सुनाने लगते हैं। यह उसी तरह हो जाता है कि, ‘आज माशूक की गली में बहुत भीड़भाड़ है, तुम भी अपना शेर घुसेड़-घसाड़ दो’। इसी दौरान एक जज साहब ने रफीक सादानी की अवधी रचना को कोट किया :
पर देश में तुम हाथ कटा एक ना पइहो
और कानून वही अपने यहां लागू हो जाए
तो दावा है कि हाथ बचा एक ना पइहो।
थोड़ी देर बाद इसी जगह पर ‘इश्किया शायरी और श्रृंगार रस की कविता’ पर बहस हुई। उम्मीद के मुताबिक, यहां पके बाल वालों और झुर्रीदार गाल वालियों की संख्या ज्यादा थी। विसाल, हिज्र, संयोग, वियोग, इश्के हकीकी और इश्के मजाजी जैसे शब्दों से शुरू हुआ सफर जांनिसार अख्तर के शेर ‘जुल्फो-सीना-नाफ-कमर, एक नदी में कितने भंवर’ और बिहारी के दोहे ‘कहत, नटत, रीझत, खिजत, मिलत खिलत, लजियात, भरे भौन में करत हैं नैनन ही सौं बात’ के पंखों पर तेजी से आगे बढ़ने लगा। वक्ता रूहानी के बजाय जिस्मानी प्रेम के समर्थन मे दिखे। मीर की ‘पसीना भीगी चोली’ तक की बात का रेफरेंस दिया गया।
इससे पहले 17 फरवरी को हुए प्रोग्राम ‘हम बुलबुलें हैं इसकी’ में जिगर, फिराक. साहिर व मजरूह आदि की रचनाओं को सुरों से सजाकर विद्या शाह ने पेश किया। दानिश हुसैन ने ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसिएशन की कहानी सुनाईज् और इस दरम्यान जिन रचनाकारों का नाम आता, विद्या उनका कलाम सुना रही थीं।
17 तारीख की ढलती शाम में हुए मुशायरे में शकील जमाली ने यह शेर पढ़ा था
तेरी गली के सिवा और क्या ठिकाना है
यहीं मिलेंगे अगर लापता नहीं हुए हम
और इसी उम्मीद के साथ कि अगले साल फिर मिलेंगे
खुदा हाफिज
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