कलपेली भींजल तिवइया हो, उगीं हे दीनानाथ!

ऐ खुदा थोड़ी करम फ़रमाई होना चाहिये
इतनी बहनें हैं तो एक भाई होना चाहिए

मुनव्वर राणा के इस शेर का कितने 'क्रांतिकारियों' ने विरोध किया ? यदि नहीं तो छठ में ही फॉल्ट क्यों ढूंढ रहे हैं कि यह बेटे का त्योहार है?

यह क्यों नहीं मानते कि यह त्योहार सिस्टम को चैलेंज करता है। किसी पुरोहित की जरूरत नहीं, किसी मंत्र की आवश्यक्ता नहीं, किसी मुहूर्त का झंझट नहीं, किसी दक्षिणा की बाध्यता नहीं। खुदा और बन्दे के बीच किसी मुहम्मद की अनिवार्यता नहीं। साक्षात सूर्य और उनके उपासक। इससे बड़ी क्रांति हुई है कभी। और जो लोग रो रहे हैं कि इस पूजा का भी सारा दायित्व महिलाओं पर है वे यह सोचें कि उन असूर्यमपश्या महिलाओं के अंदर विरोध की कितनी चिनगारी थी। वे महिलाएं इनकी तरह सिर्फ गालवीर या कलमवीर नहीं थीं।

छठ के गीतों की फिलॉसफी समझिए। गेहूं खरीदने से लेकर नदी किनारे घाट बनवाने और सुबह सूर्य से जल्दी उदित होने की आरजू। ये गीत ऊर्जा देते हैं। कभी पपड़ाये होठों और पानी में कांपते कण्ठों से फूटने वाले गीत, कल्पेली भीजल तिवईया हो उगीं हे दीनानाथ, सुनिए और इस हठ और विनय को समझिए, पता चलेगा कि साध्य को हासिल करने के लिए कितना बड़ा समर्पण है। यदि आप इससे आधा भी कष्ट उठाये रहते तो अब तक सिस्टम बदल चुका होता। दुष्यंत कुमार को यह कहने की जरूरत नहीं पड़ती कि जले जो रेत में तलुवे तो हमने ये देखा, बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए।

जिस समाज ने छठ की शुरुआत की, वहां लड़कियों से कठोर शारीरिक श्रम नहीं करवाया जाता। इसलिए अगर महिलाएं बेटे की आरजू करती हैं तो समस्या क्या है? गेहूं धुलवाना, घाट बनवाना और वहां तक भरा हुआ दौरा ले जाना, ये कोई मां-बाप बेटी से नहीं करवाते। घाट बनाना क्या होता है, इसे महानगरों में रहकर नहीं समझा जा सकता।

वैसे छठ के ही ये पारम्परिक गीत हैं कि, रुनकी झुनकी बेटी मांगीला और पांच पुत्तर अन धन लछ्मी, धियवा (बेटी) मंगबो जरूर। और पिक्चर देखिये, स्त्री-पुरुष दोनों ही व्रत कर रहे हैं।

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