नाम में क्या रखा है? कन्फ्यूजन

यह पुराना सवाल है कि नाम में क्या रखा है? सवाल यह भी है कि सरनेम में क्या रखा है? जाहिर है या तो पहचान क्लियर या कन्फ्यूजन। दो दिन पहले कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में गए जितिन प्रसाद के मामले में भी यही हुआ। जितिन की कहानी यही छोड़कर हम चलते हैं यूपी के शो विंडो नोएडा में और वहां इसका एक और तमाशा देखते हैं।

2014 में लोकसभा का चुनाव हुआ था। 2012 में नोएडा विधानसभा सीट से विजयी डॉ. महेश शर्मा के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद यह सीट खाली हुई थी। यहां हुए उपचुनाव में बीजेपी ने प्रत्याशी बनाया था विमला बाथम को जबकि उनकी ्प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थीं सपा की काजल शर्मा। काजल शर्मा जैसा कि सरनेम से पता चलता है, ब्राह्मण हैं। विमला बाथम को लेकर उनके विरोधियों ने खबर फैला दी कि वह ईसाई हैं। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान विमला बाथम को यह बात लगातार कहनी पड़ी कि वह वैश्य हैं। बाथम सरनेम से किसी और जाति-धर्म का मतलब नहीं।

जितिन प्रसाद के बीजेपी जॉइन करते ही यह खबर तेजी से फैली या फैलाई गई कि वह प्रदेश में बड़े ब्राह्मण चेहरा हैं और इसलिए बीजेपी उन्हें अपने पाले में लेकर आई है। अब इनके सरनेम से तो ब्राह्मण होने का बोध होता नहीं और लगातार लोकसभा का दो चुनाव हार चुके जितिन प्रसाद कितना बड़ा चेहरा हैं, यह समझना भी मुश्किल नहीं। लेकिन ब्राह्मण होने का बाजा बज गया। बीजेपी से ब्राह्मण नाराज हैं, यह वर्तमान सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान सुनने को मिलता रहा। वैसै नाराजगी की बात उठी तो भूमिहारों की नाराजगी का मसला उठना चाहिए था। आखिर 2017 में जब यूपी में बीजेपी सत्ता पाने की स्थिति में आई तो मनोज सिन्हा उसके सबसे बड़े दावेदार के रूप में उभरकर आए। मनोज सिन्हा जाति से भूमिहार हैं और पूर्वी यूपी के गाजीपुर, मऊ और बनारस में इस जाति की बड़ी आबादी है। आजमगढ़, चंदौली में भी इनकी मौजूदगी है। किसी जमाने में कांग्रेस के साथ-साथ लेफ्ट का झंडा भी इनके कंधों पर था। फिलहाल इनकी अधिकतर आबादी बीजेपी की समर्थक मानी जाती है। ऐसे में सवाल यह है कि बीजेपी में कभी भूमिहार वोटरों की नाराजगी का मसला क्यों नहीं उठा? कुछ जानकारों ने तो जितिन को यूपी में बीजेपी का सीएम फेस तक करार दे दिया।

जितिन प्रसाद राहुल गांधी की कोर टीम में थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद उन्हें तोड़कर बीजेपी राहुल गांधी और उनकी इमेज पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने की फिराक में है। ऐसा इसलिए क्योंकि जब अगले साल विधानसभा चुनाव हों तो राहुल गांधी को कोई सीरियसली न ले। इसका मनोवैज्ञानिक असर यूपी की पार्टी प्रभारी प्रियंका गांधी पर भी पड़ेगा।  टीम राहुल के मेंबर रहे सचिन पायलट भी राजस्थान में डांवाडोल हैं। इसे इस तरह क्यों नहीं देखा जाता?  हम हर चीज में जाति-धर्म का एंगल तलाशने से कब ऊपर उठेंगे? यह राजनेताओं के लिए बहुत सहूलियत की स्थिति होती है कि जनता जाति-धर्म में उलझी रहे और वे अपनी चालें चलते रहैं जो समझ में ही न आए।

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