जिल्ले इलाही
सत्ता केंद्र की कमजोरी होती है, वह अपने सामने किसी को पनपने नहीं देना चाहता, भले वह कितना भी बेहतर परफ़ॉर्मर हो। इस कवायद में भले सत्ता नष्ट हो जाए, यह मंजूर होता है। यदि किसी ने केंद्रीय नेतृत्व का बिना आशीर्वाद लिए किसी मौके पर या लगातार बढ़िया उपलब्धि हासिल कर ली, तो नेतृत्व इस ताक में लग जाता है कि कब और कैसे उसे फंसाया जाए? निपट तो वह खुद ही जायेगा।
पंजाब विधानसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस जीती और उसकी सरकार बनी। लेकिन परफॉर्म तो कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बेहतर किया था, बिना केंद्रीय नेतृत्व के भरोसे, लिहाजा जीत का श्रेय न सोनिया गांधी एंड फैमिली को मिला, न मिलना चाहिए था। लोग पांच साल तक कैप्टन की जीत की ही बात करते रहे।
अब फिर चुनाव का वक्त आ गया है। केंद्रीय नेतृत्व वहां पार्टी का प्रदर्शन कमज़ोर करने को तैयार है, लेकिन कैप्टन को फ्री हैंड देने को राजी नहीं। उसने नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया, जो पहले भाजपा में थे और कुछ दिनों से आम आदमी पार्टी का गुणगान कर रहे थे। राजनेता के रूप में सिद्धू का कद क्या कैप्टन जितना बड़ा है, इसका जवाब कांग्रेस को पारिवारिक पार्टी बनाने वालों को देना होगा।
लेकिन कैप्टन ने केंद्रीय नेतृत्व को खामोश चैलेंज कर जनता के बीच शानदार प्रदर्शन किया और यही उनके लिए अभिशाप बन गया। लोग कह रहे थे और कहेंगे कि कैप्टन जैसी परफॉरमेंस दूसरे राज्यों के कांग्रेसियों को भी करना चाहिए। और यही बात टॉप लीडरशिप को खटकती है। कुछ और कैप्टन बन गये तो हमें कौन पूछेगा?
राहुल गांधी डिसीजन नहीं लेंगे, कहीं अनुकरणीय प्रदर्शन नहीं करेंगे, अध्यक्ष की जिम्मेदारी से भी भागेंगे, लेकिन पार्टी पर कब्ज़ा भी चाहेंगे। हैं एक सामान्य सांसद, लेकिन कई बार पार्टी पदाधिकारी की तरह प्रेस को ब्रीफ करते हैं। सोनिया गांधी का स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा, लेकिन नया अध्यक्ष चुन नहीं पा रहीं। ऐसे में तमाम कैप्टन हाशिये पर डाले जाएंगे और सेल्फ ब्रैंडिंग को ही परफॉरमेंस साबित कर देने वाले सिद्धूओं को गद्दी पर बिठाया जाएगा।
तू इधर-उधर की बात ना कर, ये बता कि काफिला क्यूं लुटा?
मुझे रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।
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