गुरु : बंधु भी बनो और सखा तुम्हीं

आज गुरु पूर्णमा पर तमाम लोग गुरुओं के प्रति श्रद्धा भाव प्रदर्शित कर रहे हैं। इसे ऋषि ऋण भी मान सकते हैं। तीन ऋण लेकर मनुष्य जनमता है-देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। पूजा-पाठ और हवन यज्ञ से मनुष्य देव ऋण से उऋण होता है और संतान उत्पति करने से पितृ ऋण से। विद्या अर्जन और उसका प्रसार करने से मनुष्य ऋषि ऋण से मुक्त हो जाता है। ऋषियों को गुरु की श्रेणी में रखा जा सकता है। 

गुरु वह है जो हमारा धर्म परिवर्तन कराए। धर्म परिवर्तन यानी विचारों में परिवर्तन। किसी एक धर्म से दूसरे धर्म में गमन की क्रिया नहीं। एक धर्म से दूसरे धर्म में गमन की क्रिया धर्मांतरण कही जाती है। 

विचारों में परिवर्तन करवाने वाले को गुरु माना जाए तो रामचंद्र सुग्रीव के गुरु हुए। सुग्रीव तो अपने बड़े भाई बालि के भय से हनुमान और जामवंत आदि सचिवों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर छिप कर रह रहे थे। राम उनके विचारों में परिवर्तन लाए और इसके बाद ही सुग्रीव अपने भाई बालि के साथ युद्ध को तैयार हुए। हालांकि इसकी एक वजह यह भी थी कि राम ने उन्हें भरोसा दिया था कि बालि से संग्राम के दौरान वह उनकी मदद करेंगे, यह आश्वासन भी सुग्रीव के विचारों में परिवर्तन का एक बड़ा कारण था। सुग्रीव युद्ध को उद्यत हुए  और इस मामले में उनका धर्म परिवर्तन राम ने  किया था। 

द्वापर में कृष्ण ने नंद गांव के लोगों का विचार बदल दिया और वे इस बात पर तैयार हो गए कि इंद्र की पूजा नहीं होगी। इस लिहाज से कृष्ण उनके गुरु हुए। और जब शिष्यों पर आफत आई तो कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत का छाता बनाकर उन लोगों की रक्षा की, जो उनके विचारों से प्र‌भावित होकर इंद्र पूजा से विमुख हुए थे। कहा जाता है कि इंद्र अपने अवहेलना से इतने नाराज हुए थे कि आज के शब्द में कहें तो उस समय उस गांव पर बादल ही फट पड़ा था।

महाभारत का युद्ध हो रहा था। अर्जुन के शिष्य सात्यिकी कौरव पक्ष के भूरिश्रवा से लड़ रहे थे। सात्यिकी शस्त्र विहीन हो गए। भूरिश्रवा का तलवार वाला हाथ ऊपर उठा और सात्यिकी की गर्दन कटने ही वाली थी कि कृष्ण ने अर्जुन को दिखाया-सात्यिकी तो गए। कहा जाता है कि अर्जुन ने अपने शिष्य के लिए युद्ध के तमाम नियम को दरकिनार कर भू्रिश्रवा का वह हाथ अपने तीर से काट दिया था,  जिसमें पकड़ी तलवार सात्यिकी की गर्दन काटने जा रही थी। इस विरोध स्वरूप भूरिश्रवा ने युद्ध भूमि में अनशन शुरू किया तो अर्जुन का इशारा पाते ही सात्यिकी ने भूरिश्रवा की तलवार से उसी की गर्दन धड़ से अलग कर दी थी।

अब फर्ज करिये कि राम यदि सुग्रीव को ललकार कर आगे करने के बाद ऐन मौके पर पीछे हट जाते तो इस युद्ध का क्या अंजाम होता? अच्छा रहा कि राम ने अपने उस शिष्य सुग्रीव की  खातिर अपयश लिया, बालि के सामने निरुत्तर हुए लेकिन गुरु की मर्यादा नष्ट नहीं होने दी। इंद्र के कोप से जब नंदगांव जलमग्न होने वाला था, वैसे में इंद्र से अपने रिलेशन बेहतर रखने के लोभ में कृ्ष्ण गांववालों का साथ नहीं देते तो आज उनकी क्या इज्जत होती? क्या वक्त उन्हें माफ करता? क्या हीरा डोम फिर ‘कानी अंगुरी प धइके पथरा उठवलन’ जैसी बात लिखते? 

ऋषि ऋण दोतरफा होना चाहिए। इसमें शिष्य के साथ-साथ गुुरु की भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। सिर्फ विद्या दान देने से उनके कर्त्तव्यों का समापन नहीं होना चाहिए। जिंदगी में जब भी किसी शिष्य को जरूरत पड़े तब-तब गुरु को उसके समर्थन में खड़ा होना चाहिए। न सिर्फ खड़ा होना चाहिए बल्कि यह खड़ा होना दिखना भी चाहिए। ऐन वक्त पर पीछे हटने वाले को गुरुघंटाल कहा जाना चाहिए, गुरु नहीं।

गुरु विहीन लोगों के लिए दुष्यंत कुमार कह गए हैं :

हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया, हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही

हिम्मत से सच कहूं तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रोकर बात कहने की आदत नहीं रही।

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