उपेक्षित क्यों हो रहा है लोकपर्व पिड़िया?

सामूहिक रूप से पिड़िया के गीत गाते हुए सूर्य के उगने से पहले जलाशयों तक जाना और झूमर गाते हुए लौटना, उसके पहले भाई दूज के दिन पिड़िया लगाना, कार्तिक पूर्णिमा के दिन सोरहियाना या दोहराना और अगहन शुक्ल पक्ष की एकम तिथि को निर्जला व्रत कर शाम में शांत (Pin Drop silence) माहौल में रसियाव खाना, उस दौरान जरा-सी भी आवाज होने पर गुड़ और नए चावल का बना यह व्यंजन छोड़कर उठ जाना, अगली सुबह गीत गाते नदियों-तालाबों तक जाना और लड़कियों औरतों का आपस में फांड़ (आंचल) या मुट्ठी बदलना। शुरू के पंद्रह दिन छोटी और बाद के पंद्रह दिन बड़ी कहानी सुनना। गतिशीलता और उपभोक्तावाद के इस दौर में भोजपुरीभाषी इलाकों का भाई-बहन का यह त्योहार लुप्त होता जा रहा है।  इसी दौरान मैथिली भाषी इलाकों में भाई-बहन के प्यार का त्योहार सामा-चकेवा मनाया जाता है, जिसकी हनक बरकरार है।


भाई दूज के दिन जिस गोबर से गोधन की प्रतिकृति बनाई जाती है, उसी गोबर से लड़कियां-औरतें पिड़िया लगाती हैं। एक लड़की गोबर की पांच पिंडिया दीवार पर बनाती है। फिर कार्तिक पूर्णमा के दिन उसे दोहराती हैं। एक युवती अपने एक भाई के लिए 16 पिंडिया लगाती है जिसे सोरहियाना (सोलह से इसका संबंध है) कहते हैं। जब यह दोहराव होता है उस दिन बछिया के गोबर का इस्तेमाल होता है, गाय का नहीं। पिड़िया लगाया भी उसी घर या घेरे में लगाया जाता है, जहां गोधन रहते हैं। गोबर से एक और बात याद आई। पिछली सदी तक जब खलिहान में धान को पूरा प्रोसेस (दवनी-ओसावन) करने के बाद जब उसकी ढेरी लगाते थे, तो उसके शिखर पर गोबर रखते थे। वह गोबर बैल का होता था, जिसे बढ़ावन कहते हैं। यह न गाय का न बछिया का। मकसद यह होता होगा कि धान का ढेर आईडेंटिफाई हो कि अब इस ढेर को घर ले जाान है। वहां बैल रहते थे तो उनका गोबर ही इस्तेमाल किया जाता होगा। कामना यह की जाती थी कि जैसा इसके नाम में है बढ़ावन, यानी अगले साल यह ढेर और बढ़े यानी धान की फसल और अधिक हो। दूसरी बात यह कि गाय के अलावा बछिया और बैल के गोबर का इस्तेमाल, यानी सर्वांगीण विकास की बात। सभी पर ध्यान देने की जरूरत। ऐसा नहीं कि किसी ेएक क्षेत्र पर ही फोकस करना।

अब आते हैं पिड़िया के गीतों पर। अभी एक ऑनलाइन गीत सुना - चढ़त अगहनवा, सोचाए लागल दिनवा, धराई गइले ना, मोरा गवना के दिनवा धराई गइले ना...इस त्योहार का जो महीने भर का वक्त होता है, उसी दौरान देवउठनी एकादशी भी आती है। यानी शादी-ब्याह जैसे मांगलिक कार्यों की शुरुआत। पहले शादियां कम उम्र में हो जाती थीं तो गौना का प्रचलन था, अभी भी है। भोजपुरी भाषी इलाकों में अभी किसान खाली होता है। धान दिसंबर में कटता है, लेकिन फसल पक चुकी होती है। खेत-खलिहान में फंसने से पहले वह शादी-गौना निपटा देना चाहता है। लेकिन दिक्कत तब आती है जब निर्जला व्रत वाले दिन लड़की दिन भर व्रत रखती है और शाम में जैसे ही जीमने बैठती है, उसी समय शोरगुल हो जाता है और खाना छूट जाता है। उसी समय गौने की बारात भी आई रहती है, और इसमें विदाई सूर्योदय से पहले होती है, तो लड़की भूखी-प्यासी ही विदा हो जाती है। ससुराल में ही तमाम रस्मों के बाद ही निवाला नसीब होता है, लेकिन इसकी किसी ने शिकायत की हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। कई बात तो छोटे भाई ही शैतानी में खाने के समय किसी कुत्ते को पीट देते थे, कुत्ता चीखना शुरू कर देता था और व्रती लड़की भूखे ही उठ जाती थी। गीतों में पति-पत्नी का प्यार भी होता है और पलायन की पीड़ा भी। इसके गीतों की अपनी लय है, अपना सौंदर्य है, अपना माहौल है और अपनी पीड़ा और प्रेम है। एक पारंपरिक गीत है- दलकत आवेले दल के सिपहिया चली रे गइले ना, ननदो तोहर भइया चली रे गइले ना। यह गीत कितना पुराना है, नहीं पता। लेकिन आप 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय के हालात को देखें तो लगता है कि इस गीत का संबंध उस काल से भी है। उस समय चीन के साथ युद्ध में इतने सैनिक मारे जा रहे थे कि प्रॉपर बहाली का समय नहीं था। गांव के बाहर जानवरों को चराते नौजवान, खेतों में काम करते युवा किसान, सबकी सेना में रैली बहाली हो रही थी। गीत का अर्थ भी यही है कि सैनिकों का दल आया और मेरा पति भी उनके साथ चला गया। हो सकता है गीत इससे  पहले का भी हो।

इस त्योहार में धान का खास महत्व है। भाई के नाम से सोलह धान से निकाला गया चावल। चावल आमा घवद से निकाला जाता है। एक थ्योरी यह भी है कि धान की नर्सरी किसी और खेत में तैयार होती है और फसल किसी और खेत में लहलहाती है। लड़कियां भी जीवन के शुरुआती सालों में मायके में रहती हैं और फिर एक नए परिवेश और परिवार में चली जाती हैं। वे धान की तरह लहलहाएं, यह कामना धान के साथ अंतर्निहित है।

जब व्रती जलाशयों पर पिड़िया को प्रवाहित करने जाती हैं तो वहां आंचल बदलती हैं। यानी अपने आंचल का लावा-मिठाई दूसरे के आंचल में और दूसरे की सौगात अपने आंचल में। और प्रक्रिया बंद मुट्ठी से होती है। सामने वाले को यह पता नहीं चले कि मुट्ठी में कितनी मिठाई है। यह खुशियों को बांटने के लिए है। खुशी अपने तक ही सीमित नहीं रखनी है। इसे सबके साथ शेयर करना है, यही इसका मकसद है। जाति-धर्म का बंधन नहीं।

जब से घरों में गोधन के लिए स्पेस कम होने लगा, गोबर से घिन आने लगी, नदियों और तालाबों में स्नान  पिछड़ेपन की निशानी बनने लगा, तब से यह त्योहार उपेक्षित होने लगा। हकीकत है कि जितने फिल्माए गए विडियो और गीत ऑनलाइन मिल रहे हैं, उतने घरों में पिड़िया लगा हो, ऐसा नहीं दिख रहा। यह कहने-सुनने में  भले अपटपटा लगे, लेकिन यह त्योहार जब से बिहार में सामाजिक चेतना  के उभार का काल बताया जाता है, उसी काल से कम होता गया। जब लोगों ने गोधन से ही किनारा कर लिया तो यह त्योहार कितने दिनों तक बचता?  कहा जाता है कि छठ के साथ त्योहारों की एक श्रृंखला समाप्त हो जाती है, लेकिन भोजपुरी भाषी इलाकों में कहा जाता है कि पिड़िया के साथ सभी पर्व दह (प्रवाहित) जाते हैं।

फोटो गूगल से साभार

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