सुतल पिया के जगावे हो रामा, तोर मीठी बोलिया
जब बधार (खेत) में सरसों और तीसी नई उमंग से गलबहियां करने लगती हैं, जब नीम और पीपल में नए पत्ते आ जाते हैं, जब आम नया मौर पहन लेता है, जब महुए की खुशबू नई मादकता फैलाने लगती है, जब गेहूं और कान की बालियां नए अंदाज में मचलने लगती हैं, जब चना मानों नए हिप्पी कट हेयर स्टाइल में बिंदास झूमने लगता है, जब अनाज के रूप में घर में नई सुख-समृद्धि आने लगती है और परदेसी प्रियतम की याद नए सिरे से सताने लगती है, तब शब्द वेदना में डूबकर फूट पड़ते हैं चैता के रूप में, 'ए रामा पिया परदेसवा'
फणीश्वर नाथ रेणु ने अपने चर्चित उपन्यास 'मैला आंचल' में एक चैती का जिक्र किया है, सुतल पिया के जगावे हो रामा तोर मीठी बोलिया'। इसका मतलब यह कि नायक सो रहा है। सुबह हो गई है और कोयल की मीठी तान सुनाई दे रही है। नायिका कोयल पर लानत भेजती है कि उस कूक से उसके पति की नींद खुल जाएगी। फिर? फिर वह उससे अलग होकर अनाज काटने खेतों में चला जाएगा। नायिका यही नहीं चाहती। कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि मुंह अंधेरे खेतों में जाने की क्या जरूरत है? थोड़ा रुककर भी तो जा सकता है। जो लोग दरअसल खेती के बारे में जानते हैं उन्हें यह पता है कि चैत की कटनी या कटिया सुबह ही होती है क्योंकि उस समय अनाज की बालियां और डंठल दोनों मुलायम रहते हैं। धूप बढ़ने के साथ-साथ उनमें शुष्कता आने लगती है और ऐसे हालात में अनाज खेतों में ही झड़ जाता है। एक गीत में इसे यों कहा गया है, 'भइल भोरहरिया ले ल हंसुआ रसरिया, धनी हो चल बधरिया करेके कटनिया हो ना'
लोकगीत पहाड़ी झरने की तरह चट्टानों से टकराते, उछलते हुए अपनी राह खुद बनाते हैं। इन्हें शास्त्रीय संगीत को तरह राजकीय प्रश्रय की जरूरत नहीं होती। चैता भी आमतौर पर भोजपुरी इलाकों में चरवाहों, खेतिहर मज़दूरों और किसानों के कंठ में वास करता है। खेत और खलिहान से इसकी तान उठती है। इसे आंगन में नहीं गाया जाता। एक बात और, भोजपुरी लोकगीतों के गायक कभी संगीत की देवी सरस्वती से यह नहीं कहते कि वे उनके कंठ या जीभ पर विराजें। उन्हें पता होता है कि जिह्वा पर सरस्वती का वास ठीक नहीं होता।कुम्भकर्ण ने ब्रह्मा की उपासना इन्द्रासन के लिए की थी। जब वर मांगने का वक़्त आया तो देवताओं ने सरस्वती से कुम्भकर्ण की जीभ पर बैठने की इल्तजा की और कुम्भकर्ण ने इन्द्रासन के बदले निद्रासन मांग लिया था। इसी तरह सरस्वती के प्रभाव में आकर कैकेयी ने राम की राजगद्दी के दौरान तापस भेष विशेष उदासी, चौदह बरस राम वनवासी की शर्त रख दी थी। इसलिए चैता के गायक जब गाते हैं कि कंठे सुरवा होख ना सहइया ए रामा, तो वे देवी सरस्वती के बजाय सुर का मनुहार करते दिखते हैं।
चैता-चैती वैसे तो विरह और श्रृंगार रस प्रधान हैं, लेकिन भारत की आध्यात्मिक प्रवृत्ति इसमें थोड़ा धार्मिकता का पुट भी डाल देती है । चैत में ही नवमी तिथि को भगवान राम का जन्म हुआ था और कई गीत राम और अयोध्या से भी सम्बंधित हैं। मसलन-राम जी के भइले जन्मवा हो रामा, अवध नगरिया।
भोजपुरी इलाके में परदेस में प्रवास की पीड़ा बरसों पुरानी है। पहले असम के चाय बागानों में फिर कलकत्ता में हिंदुस्तान मोटर समेत दूसरी कम्पनियों में, फिर टाटा, झरिया, धनबाद और बोकारो में और अब दिल्ली और सूरत में। इस विरह से संगीत तो निकलता है लेकिन सरकारों का नाकारापन भी सामने आता है। श्री बाबू से लेकर सुशासन बाबू तक किसी सीएम ने बिहार का पलायन रोकने के लिए कुछ नहीं किया। सब यही चाहते हैं कि पति-पत्नी दोनों चकवा-चकवी बने रहें और हुक्मरां विरह रस के गीतों का मज़ा लेते रहें। हुकूमतें चलती रहें और विरहिणी कण्ठों से फूटता रहे कि बीत गइले सउँसे चइतवा हो रामा पिया नाहीं अइले.......
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