ऐसे भी बनते हैं फुटबॉल टीम के फैन
वर्ल्ड कप फुटबॉल का सेमीफाइनल शुरू होने में अभी टाइम है। तब तक मैं आप सभी को एक सत्यकथा सुनाता हूँ।
2002 का दौर था। फुटबॉल की विश्व विजेता टीम फ्रांस विजय मद में मचलती हुई आई थी। टूर्नामेंट का आयोजन साउथ कोरिया और जापान ने संयुक्त रूप से किया था। 1998 का चैंपियन फ्रांस इस मुकाबले में बिना कोई गोल किये फर्स्ट राउंड के बाद ही ससम्मान विदा हो चुका था। अधिकतर भारतवासी (संघी और कम्युनिस्ट दोनों) फ्रांस की हार से खुश हुए थे।
जब पहले ही मैच में अफ्रीकन देश सेनेगल ने फ्रांस को पछाड़ना शुरू किया तो रांची में एक अखबार के दफ्तर का नज़ारा बड़ा दिलचस्प था। वहां के एक journalist जो खुद को activist कहलाना पसन्द करते हैं, ने तत्काल बता दिया कि सेनेगल वाले दरअसल झारखण्ड के कोल-भील और मुंडा हैं। पूरे टूर्नामेंट में उनका उत्साह गज़ब का था। उन्हें उत्साहित देखकर हमारा भी हौसला बढ़ता। जब सेनेगल फ्रांस पर चढ़ाई करता वे तत्काल छत पर चढ़ जाते और वहां एक सिगरेट पीकर मानो हवा के माध्यम से उसकी खुशबू सेनेगल के खिलाड़ियों तक पहुंचा कर आते थे। फ्रांस की हार उनके लिए एक तरह से पूंजीवाद की पराजय थी। और जब फाइनल ब्राज़ील ने जीता तो उन्होंने इसे ब्राज़ील के राष्ट्रपति की रेस में शामिल लूला डी सिल्वा की नीतियों की जीत बताया था। उसी साल लूला भी राष्ट्रपति का चुनाव जीते थे। उन्होंने उत्साह में यह भी दावा कर दिया कि लालू और लूला जैसे नेता नहीं। यह अलग बात है कि बाद में लूला और लालू दोनों को करप्शन में जेल हुई थी।
जब यह टूर्नामेंट चल रहा था उस दौरान भारत पाक बॉर्डर पर तनाव भी था और लगातार फायरिंग हो रही थी। लोगों की चर्चा के केंद्र भी गोल और गोला ही थे। टूनामेंट खत्म होने के बाद भारत के कई शहरों में मुँहनोचवा का आतंक फैल गया था।
कल जब किसी का स्टेटस पढ़ रहा था कि जिन्हें 10 अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के नाम नहीं मालूम, वे फीफा कप में ऐसे पिले पड़े हैं, मानो उनसे अधिक जानकार कोई नहीं।
अब क्या बताया जाए कि हम आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और अन्य कारणों से भी किसी टीम के फैन हो जाते हैं। वरना क्या वजह है कि सिर्फ दो बार की चैंपियन टीम अर्जेन्टीना हमारी इतनी फेवरेट है। हम फ्रांस की टीम को भी परमाणु शक्ति से जोड़कर देखने लगते हैं। 1986 में हम सोवियत संघ की हार से दुखी हुए थे और 2018 में भी रूस की पराजय से। जबकि रूस की टीम यहां तक पहुंची, यही उसके लिए बहुत था। गुट निरपेक्ष होते हुए भी भारत का रशिया की ओर झुकाव किसी से छुपा थोड़े है? यह फुटबॉल की यूरोपियन और लैटिन अमेरिकन शैली की श्रेष्ठता की लड़ाई भी है , जिसमें संयोगवश इस बार सिर्फ यूरोप की टीमें बची हैं।
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