दिल्ली में कौन बाहरी नहीं है?

दिल्ली में कौन लोकल है और कौन बाहरी? किस आधार पर बिहारी (इसमें ईस्टर्न यूपी वाले भी शामिल हैं) दिल्ली में बाहरी हैं? वे other state के हैं लेकिन दिल्ली में एक शब्द है बाहरी राज्य यानी outer states. जो लोग 1947 में यहां शरणार्थी बनकर आये थे, उन्होंने अपने वंशजों को इस शब्द की विरासत सौंप दी और यह गुरु ज्ञान दे दिया कि तुम किराया खाते वक़्त जोर जोर से और हो सके तो हमेशा इस बाहरी शब्द का जाप करते रहना। इससे वह बाहरी किरायेदार कभी तुम्हारे सामने न तो सिर उठा पायेगा और न ही कभी उसके दिमाग में आएगा कि दरअसल बाहरी तो तुम हो। नेहरू विहार से निकला यह ज्ञान बाद में मुनीरका में रहने वाले उन लोगों ने भी ले लिया जो अफ्रीकी छात्रों से मिलने वाले किराए पर पल भी रहे हैं और उन्हें स्मगलर भी मानते हैं।

करीब 10 साल पहले मीडिया में एक सर्वे रिपोर्ट छपी थी जिसके मुताबिक दिल्ली की मूल आबादी में सिर्फ 20 फीसदी ग्रेजुएट है। इस मूल आबादी में वे बाहरी लोग भी शामिल होंगे जिनके पास उस समय दिल्ली का वोटर कार्ड होगा। तो जो समाज ग्रेजुएशन करना भी नहीं चाहता (प्रॉपर्टी डीलर बनने के लिए किसी शैक्षणिक योग्यता की जरूरत भी नहीं) उसके लिए IAS की कोचिंग के क्या मायने हैं? बाहुबली फ़िल्म का एक सीन याद करिये-परिंदों के जोड़े को देखकर बाहुबली के हृदय नें जहां प्रेम का संचार होता है, वहीं कटप्पा का मन उसे नमक मिर्च मिलाकर हल्की आग पर सेंककर खाने का करता है। जिस समाज के लिए शैक्षणिक योग्यता का कोई महत्व नहीं, उनके लिए IAS की कोचिंग करने वाले छात्र भी परिंदों के उस जोड़े की तरह हैं जिन्हें हल्की आग पर लगातार सेंकने में इन्हें मज़ा आता है।
दिल्ली में चिंकी कहने पर आपत्ति हो सकती है, केस भी दर्ज हो सकता है, लेकिन बिहारी शब्द को गाली का पर्याय बना देने पर क्या कार्रवाई होती है? वैसे गाली के विरोध को लेकर उन स्थानीय लोगों के समाज से कोई उम्मीद क्यों पाली जाए, जिनके हर वाक्य की शुरुआत, अल्प विराम और पूर्ण विराम सामने वाले की बहन से नजदीकी सम्बन्ध स्थापित करने वाले शब्द के साथ ही होता है।

इन स्थानीय लोगों ने काली पीली टैक्सी और ऑटो में बैठाकर सवारियों को जितना लूटा, उतना शायद अंग्रेजों ने भी नहीं लूटा होगा। नेहरू विहार में आने वाले बाहरी छात्रों को स्टेशन पर ऑटो में बैठाते ही लूटपाट का सफर शुरू हो जाता है जो मकान के किराए से लेकर सड़े परांठे और घटिया टिफिन खिलाकर मनमाफिक पैसे वसूलने तक चलता रहता है। छाछ को लस्सी और अमूल बटर लगाकर बने परांठे को देसी घी के बताकर बेचना कोई इन स्थानीय लोगों से सीखे।

और विरोध? विरोध करने पर वही होगा जो आजकल तिमारपुर में हो रहा है।

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