यूपी में बीजेपी क्लास की राजनीति कर रही है, सपा कास्ट की
उत्तर प्रदेश के चुनाव के दो चरण हो चुके हैं। यह कहना तो उचित नहीं होगा कि कौन जीत रहा है और किसकी सरकार बन रही है। हालांकि राजनीतिक दलों ने जो तैयारी की है, जो उनके वोटर हैं, उसके आधार पर अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है।
बीजेपी : भारतीय जनता पार्टी ने इस चुनाव में वोटरों का एक क्लास यानी वर्ग तैयार किया है, जिसकी काट फिलहाल किसी दल के पास नहीं है। यह अलग बात है कि इस क्लास का कितना वोट बीजेपी ले पाती है? इस क्लास में वे लोग शामिल हैं जो आयुष्मान योजना में कवर हो रहे हैं, जिनके घर में किसान सम्मान निधि आ रही है, जिनके घर प्रधानमंत्री आवास योजना में बन रहे हैं और जिनके घर में कोरोना काल में मुफ्त का राशन आ रहा है। यह एक ऐसा क्लास है जिसके लोग एक दूसरे को नहीं जानते, लेकिन वे एक कॉमन मसले पर वोट कर सकते हैं। बीजेपी ने एक तरह से कम्युनिस्ट पार्टियों के कैडर वोट को इस क्लास में ला दिया है और यह वर्ग अगर बीजेपी के पक्ष में झुका तो खामोशी से उसे दोबारा सत्ता में स्थापित करवा देगा। यह तो पार्टी के विरोधी भी मान रहे हैं कि यह मदद हिंदू-मुस्लिम, अगड़ा-पिछड़ा, शहरी-देहाती में नहीं बंटी है। यह उसी तरह है जिस तरह दिल्ली में फ्री बिजली-पानी और डीटीसी की बसों में महिलाओं का मुफ्त सफर हर सीट पर प्रभावी था और आम आदमी पार्टी ने दोबारा सरकार बनाई थी। हालांकि जब यह क्लास पूरी तरह बीजेपी के साथ दिखने लगेगा तब पार्टी को लोअर मिडिल क्लास, मिडिल क्लास और शहरी वोटरों की जरूरत नहीं रहेगी। पार्टी शायद यह समझ रही है तभी उसने आम बजट में इनकम टैक्स के स्लैब में कोई बदलाव नहीं किया। इतना ही नहीं, बजट पेश होने के बाद तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यहां तक कह दिया कि तीन साल से टैक्स नहीं बढ़ाया, यह क्या कम मदद है?
सपा : सपा के साथ कई दलों का गठबंधन है लेकिन नेता अखिलेश यादव ही हैं। दो चरणों में वोटिंग के बाद रालोद प्रमुख जयंत चौधरी का रोल खत्म हो चुका है। अखिलेश पूरी शालीनता से चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन वोटरों का क्लास बनाने तक खुद को नहीं ले जा पाए हैं। अभी भी उनकी इमेज कास्ट से ऊपर नहीं उठ रही है। वेस्टर्न यूपी में उन्होने जाटों का वोट लेने की कोशिश की। यह भी कहा जा रहा है कि मुस्लिम उन्हें सिर्फ इसलिए वोट कर रहे हैं क्योंकि वही भाजपा से टक्कर ले पाने की स्थिति में हैं। यानी जिस सीट पर वह टक्कर में नहीं होंगे,वहां मु्सलमान वोट उनको नहीं मिलेगा। यूपी इतना पड़ा स्टेट है और उसमें सिर्फ कास्ट के बूते चुनाव नहीं जीता जा सकता। हां, इस चुनाव के दौरान जिस तरह वह गठबंधन को लीड कर रहे हैं, अकेले संगठन संभाल रहे हैं, उससे उनके परिपक्व होने का संकेत मिल रहा है। लेकिन प्रदेश में लॉ एंड ऑर्डर के मसले पर वह उसी तरह फंस रहे हैं, जिस तरह तेजस्वी यादव लालू के जंगलराज के नाम पर फंसे थे। हालात यह हो गई कि सुभासपा से चुनाव लड़ने की तमाम तैयारियों के बावजूद मुख्तार अंसारी को मऊ सदर से बैठाया गया और उनके बेटे अब्बास अंसारी को उम्मीदवार बनाया गया, ताकि कानून-व्यवस्था के नाम पर गठबंधन असहज स्थिति में न आए। लेकिन अब्बास क्या मुख्तार के कहे से बाहर हैं? 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने नारा दिया था, चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर। बसपा ने उस साल सरकार बनाई थी। उससे पहले सपा हुकूमत में थी। यानी मुख्यमंत्री चाहे मुलायम सिंह रहे हों या अखिलेश यादव, लॉ एंड ऑर्डर के मसले पर वे फंसते रहे हैं।
बाकी बसपा और कांग्रेस चुनाव तो लड़ रहे हैं, लेकिन इत ने बड़े स्टेट के लिए जिस एनर्जी, स्ट्रेटिजी की जरूरत होनी चाहिए, वह इन दलों में नहीं दिख रहा। बुलंदशहर गैंगरेप और लड़की की हत्या का मामला प्रियंका गांधी ने उठाया, उसके घर भी गईं, लेकिन कुछ ही घंटों में वह मसला दम तोड़ चुका था। मायावती एक रैली से कई सीटों को संदेश देने की जिस रणनीति पर चल रही हैं, उससे कोई सकारात्मक संदेश तो मिल नहीं रहा।
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