परिवारवाद बढ़ा रहे छोटे दल
1989 में केंद्र की राजीव गांधी सरकार के पतन और बाद में वीपी सिंह की परफॉर्मेंस से निराश वोटरों ने छोटे दलों को उनके विकल्प के रूप में स्वीकार करना शुरू किया। बिहार में लालू यादव, नीतीश कुमार यूपी में मुलायम सिंह यादव और मायावती का उदय हो चुका था।
हालांकि कम्युनिस्ट पार्टियां तब तक अप्रासंगिक नहीं हुई थीं। हालांकि लोगों का मोहभंग भी जल्दी ही क्षेत्रीय पार्टियों से होने लगा, जब स्पष्ट जनादेश नहीं मिलने के कारण 1996, 1998 और 1999 में लोकसभा चुनाव हुए। अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। इसके बाद फिर एनडीए की सरकार आई जिसने अपने कार्यकाल पूरा किया। इसे बीजेपी लीड कर रही थी। उसके बाद कांग्रेस के नेतृत्व में दो बार यूपीए की सरकार बनी। फिर दो बार से बीजेपी अपने दम पर सरकार बना रही है।
अभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। यूपी में अपना दल (एस) का गठबंधन भाजपा के साथ है। अपना दल (एस) की प्रमुख अनुप्रिया पटेल केंद्र में मंत्री हैं। उनकी बहन पल्लवी पटेल और मां कृष्णा पटेल का दूसरा संगठन है जिसका नाम अपना दल (क) है।
पिछले दिनों जब प्रतापगढ़ सदर सीट से अपना दल (क) से कृष्णा पटेल उम्मीदवार बनीं तो अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल ने वहां अपनी मां के खिलाफ उम्मीदवार देने से इनकार कर दिया और सीट बीजेपी को लौटा दी। अब सवाल यह है कि मां-बेटी अलग दल बनाएंगी, लेकिन आमने-सामने चुनाव नहीं लड़ेंगी। क्या मतलब हुआ इसका।
साफ-साफ है कि मतभेद चाहे जितने हों, लेकिन हार्दिक इच्छा यह है कि मां भी विधानसभा पहुंच जाए। ऐसी राजनीति सिर्फ परिवार का भला करने के लिए की जा रही है या समाज का, समझना मुश्किल नहीं है। यहां तक कि इस जाति आधारित पार्टी के दूसरे नेताओं के राजनीतिक कैरियर का भी ख्याल नहीं रखा गया। सब कुछ परिवार से शुरू होकर वहीं पर खत्म।
एक मार्च को कुशीनगर जिले की फाजिलनगर सीट से सपा प्रत्याशी स्वामी प्रसाद मौर्य के काफिले पर कथित रूप से हमला हुआ। स्वामी प्रसाद बसपा विधायक भी रह चुके हैं, पिछला चुनाव बीजेपी के टिकट पर मंत्री भी बन चुके हैं और जब चुनाव नजदीक आया तो उन्हें पिछड़ों और दलितों के सम्मान की बातें याद आने लगीं। जब उन पर कथित रूप से हमला हुआ, तब उनकी बेटी संघमित्र मौर्य, जो बदायूं से बीजेपी के टिकट पर सांसद हैं, ने हमले का सारा आरोप बीजेपी पर लगा दिया।
कैमरे के सामने उन्होंने पूरी बीजेपी को इसका अंजाम भुगतने की चेतावनी दी। मिडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बाद में उन्होंने बदायूं के भाजपा नेताओं का भी कच्चा चिट्ठा खोलने की धमकी दी। संघमित्र बीजेपी से सांसद हैं। ठीक है कि आरोप के मुताबिक हमला उनके पिता के काफिले पर हुआ, लेकिन क्या इस तरह चीख-चीखकर अपनी ही पार्टी को कठघरे में खड़ा करना क्या बताता है? जाहिर है कि पार्टी जब तक न निकाले, सांसद पद का भी मजा लेते रहो और परिवार से आगे सोचो नहीं। यह साफ-साफ प्रफेशनलिज्म की कमी को दर्शाता है।
यूपी के ही जनवादी कवि अदम गोंडवी कह गए हैं
मुल्क जाए भाड़ में इससे उन्हें मतलब नहीं, एक ही कोशिश है कि कुनबे में मुख्तारी रहे।
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