होली को नष्ट कर रही यह शिष्टता
हरसु ने गुलेल को दुरुस्त कर लिया था। मिट्टी की गोलियां बनाकर उन्हें धूप में सूखा ही नहीं लिया था, बल्कि कंचे भी खरीद लिए थे। कानून-व्यवस्था सम्भालने को चौकस दरोगा की तरह गोलियों की थैली कमर में लुंगी में बांध ली थी। इस प्रक्रिया में लुंगी की लंबाई घुटनों तक आ गई थी। गुलेल शोले के गब्बर सिंह की बंदूक की तरह कंधे पर विराजमान थी। बस अब इंतज़ार था होली का। बस इस बार कोई छेड़े और फिर स्वरचित गलियों के साथ लखेदा-लखेदी शुरू।
कई साल से ऐसा होता आ रहा था। हरसु मिठाई की दुकान पर खड़े हैं। कोई उन्हें जलेबी ऑफर करता है तभी पीछे से कोई एक मग चाशनी उनके सिर पर डाल देता है। चाशनी डालने वाला तो भाग जाता लेकिन ऑफर करने वाला उनकी मौलिक गालियों की जद में आ जाता। इसी बीच जब वह आंखों में पड़ी चाशनी को साफ करते रहते, कोई उनकी लुंगी खींच देता। ये अलग बात है कि फिर किसी को पंचायत करनी पड़ती और हरसु को जलेबी के साथ चाय भी पिलानी पड़ती, तभी वह मानते।
कुछ साल पहले होली के दौरान मुलाकात हुई थी। अपने दरवाजे पर खड़े नॉनस्टॉप गाली दे रहे थे, लेकिन इस बार गलियों में मौलिकता और उत्साह का तत्व कम था। क्या हुआ? पता चला अपने घरवालों को ही गरिया रहे थे। क्यों - पूछने पर बताया कि ये चाहते हैं कि कोई मुझे छेड़े तो गाली न दूं। उनके पीछे न भांगू। इससे इनकी बेइज़्ज़ती होती है। ठीक ही तो कह रहे हैं, इसमें दिक्कत क्या है? लेकिन साफ लग गया कि हरसु को यह राय पसंद नहीं आई।
होलिका दहन का वक़्त आ गया। हरसु आज रास्ते में खटिया डालकर लेटे हैं। गुलेल और गोलियों के साथ। लड़के जा रहे हैं। होलिका दहन करने। पूर्णिमा की रात में भी मोबाइल के टॉर्च जलाकर। कुछ चलते चलते भी होली के शुभकामना सन्देश फॉरवर्ड करने में व्यस्त। लड़कों का झुंड पास आ रहा है, हरसु अलर्ट होने लगे हैं। सिर के नीचे रखा गुलेल हाथ में आ चुका है। लेकिन यह क्या -लड़कों ने कहा -हैप्पी होली हरसु और आगे बढ़ गए। हरसु बेचैन। अब क्या करें। उधर होलिका जलती रही और इधर मन ही मन हरसु। ये हो क्या रहा है?
होली का सूरज उगा। हरसु भी नई हसरत और उमंग से जगे। गुलेल और गोलियां पास में ही थे। भागते कदमों की आवाज़ पास आने लगी। हरसु रोमांचित हो रहे थे। बच्चे उनके पास से भागते चले गए। एक लड़का उनकी तरफ बढ़ा। हरसु की आंखों में चमक बढ़ीं। लेकिन यह क्या - बच्चा हैप्पी होली अंकल जी, कह कर भाग निकला। लगातार इसकी पुनरावृति होती रही और हरसु हर क्षण टूटते रहे। जब दोपहर का वक़्त भी बीत गया और लोग नए कपड़ों में दिखने लगे तो हरसु का दिल बैठ गया।
वह चुपचाप उठे और गुलेल और गोलियों को गंगाजी में प्रवाहित कर आये। तब से ही हरसु बुझे-बुझे से हैं। पता नहीं लोग इतने शिष्ट और सभ्य क्यों हो गए?
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