यूपी : यह तो होना ही था, पर सीटें इतनी कम !

10 फरवरी 2022 को नोएडा से दादरी के चिटेहरा जाते हुए इस रास्ते से जाना हुआ। दूर तक फैले खेत और बीच में एक कमरे पर लहराता भाजपा का झंडा। चारों तरफ फसलें लहलहा रही थीं और मानो कह रही थीं कि ये सामान्य फसलें नहीं, वोट की फसलें हैं। और जब परिणाम आए तो यह गलत भी साबित नहीं हुआ। यूपी संग्राम का पहला चरण जहां 10 फरवरी को वोटिंग हुई थी, उसमें नोएडा-बुलंदशहर, गाजिियाबाद, हापुड़ और मधुरा जिले की सभी सीटें बीजेपी ने जीत ली। हापुड़ की धौलाना सीट तो बीजेपी पहली बार जीती। यह वही सीट है, जिस इलाके में एआईएमआईएम चीफ असद्दुदीन ओवैसी की कार पर फायरिंग हुई थी। हालांकि इतनी योजनाओं के बाद भी बीजेपी की इतनी कम सीटें क्यों आईं, यह बहस का मसला है।

साफ-साफ दिख रहा था कि यूपी में कास्ट और क्लास की लड़ाई चल रही है। इसमें क्लास को जीतना था वह जीता। (क्या थी कास्ट और क्लास की लड़ाई, जानने के लिए पढ़ें ब्लॉग http://boldilse.blogspot.com/2022/02/blog-post.html 

बीजेपी : हालांकि बीजेपी को उतनी सीटें नहीं मिलीं, जितनी क्लास वाले फॉर्म्युले के मुताबिक मिलनी चाहिए थी। अगर किसान सम्मान निधि प्रभावी थी, तो हर सीट पर थी। अगर कच्चा राशन और योगी का शासन प्रभावी था तो हर सीट पर था और इस हिसाब से बीजेपी की खुद की सीटें 300 से अधिक आनी चाहिए थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश, जो पश्चिम के मुकाबले गरीब है,वहां इन योजनाओं ने क्यों काम नहीं किया? पार्टी गाजीपुर और आजमगढ़ जिलों की सभी सीटें हार गई। बलिया की सात में से पांच सीटें पार्टी हारी। मऊ की चार में से सिर्फ एक सीट बीजेपी जीत सकी। बलिया जिले की बैरिया सीट पर  योगी के मंत्री रहे आनंद स्वरूप शुक्ला और फेफना सीट पर उपेंद्र तिवारी चुनाव हार गए। कौशांबी की सिराथू सीट से उप मुख्यमंत्री रहे केशव प्रसाद मौर्य नहीं जीत सके। गोरखपुर जिले की सभी सीटें भले बीजेपी ने जीत ली हो, लेकिन कांग्रेस ने जो दो सीटें जीती हैं, उनमें एक पड़ोसी महाराजगंज जिले की फरेंदा सीट भी है। इन सीटों पर ये योजनाएं क्यों नहीं चलीं, यह पार्टी के लिए चिंतन का मसला होना चाहिए। कुछ वैसे लोगों के जीतने से अगर पार्टी को लग रहा होगा कि वह अगले पांच साल तक डिस्टर्ब करते रहेंगे, तो हो सकता है कि  पार्टी ने उन्हें जिताने के बजाय हराने के लिए काम किया हो।

सपा : अखिलेश यादव ने शालीनता से चुनाव तो लड़ा, लेकिन कई सीटों पर प्रत्याशियों के गलत चयन से भी उनकी पोजिशन कमजोर हुई। कैराना सीट पर गैंगस्टर एक्ट में फंसे नाहिद हसन या अमेठी सीट पर रेप केस में उम्रकैद काट रहे गायत्री प्रजापति की पत्नी महाराजी प्रजापति को टिकट देना। यह वैसा ही था जैसे बिहार में तेजस्वी यादव ने रेप में उम्रकैद काट रहे राजवल्लभ यादव की पत्नी को उम्मीदावार बनाया या रेप केस में फरार अरुण यादव की पत्नी को टिकट दिया। होता यह है कि ऐसे लोग तो चुनाव जीत जाते हैं, लेकिन इसके असर से पार्टी कई सीटें हार जाती है। यह बात अखिलेश को छठें राउंड में समझ में आई, जब मऊ सदर सीट से मुख्तार अंसारी को सुभासपा का टिकट मिलने के बाद लड़ने से मना किया गया और मुख्तार के बेटे अब्बास ्अंसारी को कैंडिडेट बनाया गया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दूसरी बात, उनके साथ ओमप्रकाश राजभर जैसे बड़बोले और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे अविश्वसनीय सहयोगी थे। अब वोटर बेवकूफी और मौकापरस्ती नहीं बर्दाश्त करता, अखिलेश यादव यह नहीं समझ पाए। पिछले चुनाव की तरह वह इस बार भी मुस्लिम-यादव वोटों के सहारे चुनाव जीतने की कोशिश करते दिखे। प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र पर आम मेडिकल स्टोर के मुकाबले कितनी सस्ती दवा मिल रही है और यह वोटरों पर कितना असर डाल रहा है, सपा ने इसका गुणा-भाग करना जरूरी नहीं समझा। 

बसपा : इस चुनाव में दलित राजनिति दिग्भ्रमित दिखी। चंद्रशेखर आजाद रावण दलित नेता के तौर पर तेजी से उभर रहे थे, उतनी ही तेजी से गर्त में चले गए। हकबकाए भी दिखे। वह अखिलेेश यादव से गठबंधन करने गए। वहां सफल नहीं रहने पर योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए गोरखपुर सदर सीट से उतर गए और जमानत भी नहीं बचा सके। दूसरी तरफ, बसपा सिर्फ एक सीट जीत सकी। बलिया जिले की रसड़ा सीट से पार्टी प्रत्याशी उमाशंकर सिंह फिर जीते। वह जाति से ठाकुर हैं और बसपा विधानमंडल दल के नेता थे। बसपा के वोट उसी तरह बीजेपी में शिफ्ट हो रहे हैं, जिस तरह किसी जमाने में कम्युनिस्ट पार्टियों से बसपा मे आए थे। कम्युनिस्ट पार्टियों में दलितों की बातें तो होती थी, लेकिन उनका भला नहीं हो रहा था। नतीजतन, दलित वोट कई दलों की ओर मुड़ा। अब सम्मान से राशन मिलने वाली योजना के चलते वह बड़ी संख्या में बीजेपी में शिफ्ट हो रहा है। हालांकि यह वोट सपा में जाता नहीं दिखता, क्योंकि यूपी-बिहार में दलित ओबीसी नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखते। वजह यह है कि उन्हें ओबीसी की दबंग जातियों से सवर्णों से भी अधिक खतरा दिख रहा है।

कांग्रेस : जो लोग प्रियंका गांधी के राजनीतिक चातुर्य के कायल थे, उन्हें इस चुनाव में प्रियंका गांधी की परफॉर्मेंस दिख गई होगी। जब पंजाब के सीएम चन्नी यूपी दे भइये, बिहार दे भइये, दिल्ली दे भइये कह रहे थे, तब प्रियंका ताली बजा रही थीं। उस समय यूपी मे भी चुनाव चल रहा था। नतीजा सामने आ गया। एक पंजाब कांग्रेस के पास था, वह भी हाथ से चला गया। राहुल गांधी को अब कौन सीरियसली लेता है, यह शोध का विषय है।

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