यूपी में पेट तक पहुंची नाक की लड़ाई

 हाल में आए चुनावी नतीजों ने दो मुहावरों को अपडेट किया। अब इन्हें यू कहा जायेगा
1.खिसियानी बिल्ली ईवीएम नोचे
2.अरमानों पर झाड़ू फिरना

खैर, 1995 में बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ था। नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव जैसे नेता जनता दल से अलग होकर 1994 में समता पार्टी बना चुके थे। मंडल कमीशन वाले हंगामे में लालू हीरो और विलेन दोनों बन चुके थे। जातिगत कमेंट्स चरम पर था। पहली बार बड़े पैमाने पर पैरामिलिटरी चुनाव में लगाई गई। किस इलाके से किसे कितने वोट मिले, इसे गोपनीय रखने के लिए काउंटिंग सेंटरों में एक हौदी बनवाई गई जिसमें सारे बैलेट बॉक्स पलट दिए जाते थे। इसके बाद हुई थी काउंटिंग। और जब नतीजे आये तो लालू अपने सहयोगी दलों के साथ जबरदस्त वापसी कर चुके थे।
बिलकुल अभी जैसा माहौल था। लालू के विरोधी उन पर बैलेट बॉक्स बदलने का आरोप लगा रहे थे। कुछ का कहना था कि पोलिंग स्टेशन से स्ट्रांग रूम के रास्ते में ऐसा किया गया तो कुछ के पास ऐसी खुफिया खबरें थीं कि स्ट्रांग रूम की दीवारें तोड़कर बक्से बदल दिए गए। फिर पैरामिलिटरी क्या कर रही थी, इसके जवाब में वे कहते थे कि अफसर बिक गये थे। जवानों को तो उनका सही-गलत हुक्म मानना ही था। वे मानने को तैयार नहीं थे कि सत्ता की जंग नाक की लड़ाई बन चुकी थी और लालू ने उसे अपने फेवर में मोड़ लिया था।

यूपी में नाक की वह लड़ाई पेट तक पहुंच चुकी थी और कुछ लोग अभी भी इसे स्वीकारने को तैयार नहीं हैं।

मायावती 
यानी दलित राजनीति का बड़ा चेहरा। राज्यसभा या विधान परिषद में जाना पसंद करती हैं। अब ऐसा करके तो वह एक दलित का हक़ मार रही हैं। तो वह कब तक भूखे पेट दलित प्रेरणा स्थल में लगी उनकी मूर्तियों की आरती उतरेगा। इस बार उन्होंने 87 दलितों को टिकट दिए। इनमे 85 सीटें रिज़र्व थीं। यानी दलितों को सिर्फ 2 सीटों पर चुनाव लड़ने लायक माना गया। ऐसे में बजाय evm राग गाने के अपने कृत्यों पर भी निगाह डालनी चाहिए। मायावती ने इससे अधिक मुस्लिम प्रेम दिखाया और उन्हें 100 टिकट दे दिए। मुसलमानों को अखिलेश पहले ही गोद ले चुके थे। ये चीज मायावती को क्यों नहीं दिखती?

अखिलेश 
विकास के तमाम दावों के बाद भी यादव-मुस्लिम से आगे नहीं जा सके। उन्हें कांग्रेस का परम्परागत वोट मिलने की उम्मीद थी, लेकिन कांग्रेस का यह वोट बचा कहां था। यह तो पहले ही बीजेपी खींच चुकी थी। अब अखिलेश कह रहे हैं कि वोट बहकाने से भी मिलता है, कितना हास्यास्पद लगता है। जब सत्ता में थे तो सिर्फ यादव-मुस्लिम के आंकड़े पेश करते थे कि हमारी आबादी इतनी है। दूसरे पिछड़ों की बात नहीं करते थे कि वे अब भी पिछड़े क्यों हैं। जब दूसरे पिछड़ों ने देखा कि वृद्धावस्था पेंशन तो मिलती है 500 रुपये और सैफई में लुटाये जाते हैं करोड़ों तो वे कितने दिन पेट बांधकर अखिलेश के साथ नाक की लड़ाई लड़ते?

फ्लैशबैक
थोड़ा और पीछे चलते हैं। न्यूनतम मजदूरी के लिए खेतिहर मज़दूरों का आंदोलन याद करिये। नाक की लड़ाई में मज़दूरों ने हंसुए की जगह बंदूक पकड़ ली थी। चैता-फगुआ की जगह वे क्रांति गीत गाते थे। तब की मशहूर नर्तकी बिजली रानी भी अर्ज़ करती थी कि-हाथ में राइफल माथे कफनवा, जनवादी सजनवा हो गइलें। पहले किसानों का बहिष्कार और बाद में लाल झंडा गाड़कर जबरन फसल काटना। बिहार में किसान रणवीर सेना समेत तमाम संगठनों के नेतृत्व में एकजुट हुए। आमने-सामने गोलियां चलने लगीं। किसनीं ने खेती सीमित कर दी और बच्चों को जॉब के लिए बाहर भेजने लगे। मज़दूर बेरोज़गार हो गए। आज़ादी के गीत सिखाने वाले उन्हें छोड़कर लापता हो गए। मज़दूर पंजाब, हरियाणा और वेस्टर्न यूपी में जाकर खेतों में काम करने लगे। वहां उनकी अपनी पहचान ख़त्म हो गई और एक नया अपमानजनक संबोधन मिला-बिहारी। बिहारी मजदूरों की जमात में ईस्टर्न यूपी वाले भी थे। नाक से शुरू हुआ यह आंदोलन पेट पर भी भारी पड़ने लगा और लेफ्ट का यह वोट बैंक किसी-किसी दल में शिफ्ट होता गया।

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