अब वो जोगी नहीं आते
यूपी में सत्ता परिवर्तन के बाद योगी शब्द हॉट हो गया है। अब चर्चा हो रही है कि अप्रैल में रामनवमी के बाद यूपी से सटे बिहार के बक्सर में योगी आदित्यनाथ आने वाले हैं। पहली बार किसी योगी के आने की चर्चा हो रही है, नहीं तो न जाने कितने जोगी पहले आते-जाते रहते थे। हालांकि अब वे जोगी नहीं आते।

80 के दशक तक ये जोगी नियमित रूप से आते थे। पीठ पर गुदरी का झोला, कंधे पर आगे लटकती सारंगी, कान में काष्ठ कुंडल और गेरुआ वस्त्र। अधिकतर युवा। सुबह ब्रह्ममुहुर्त में गांव या मुहल्ले की फेरी सारंगी बजाते हुए लगाते थे। निर्गुण गीतों की प्रमुखता रहती थी। मसलन-राम के बोली बोल रे मैना राम के बोली बोल... उस समय कंधे पर रखी लाठी या सारंगी के नीचे लगी हुक के सहारे लालटेन भी टांगे रहते थे ये जोगी। फिर दिन में सारंगी बजाकर भिक्षाटन। लेकिन ये न तो पैसा लेते थे औऱ न ही अनाज। वे सिर्फ गुदरी-लुगरी यानी पुराने कपड़े ही लेते थे। कहते थे कि उन्हें 12 साल तक ऐसे ही घूमघूम कर 12 मन पुराने कपड़े जुटाने हैं। फिर उन्हें गोरखपुर के मंदिर में मिलेगी दीक्षा। एक मन यानी 40 किलो। वे शायद उसी मंदिर की बात करते थे, जिसके महंत अभी यूपी के चीफ मिनिस्टर बने हैं। वैसे एक जिज्ञासा आज तक बनी रही कि ये लोग दिन में लालटेन कहाँ रखते थे और इसमें डालने के लिए केरोसिन कैसे खरीदते थे, क्योंकि पैसे तो ये किसी से लेते ही नहीं थे। तब पुराने कपड़े या तो छोटे-भाई बहन पहनते थे या अड़ोसी-पड़ोसी के बच्चे या उन्हें रिश्तेदारी तक में भेज दिया जाता था। लिहाज़ा हर दरवाजे जोगी को कुछ मिल ही जाये, इसकी गारंटी नहीं थी। जोगी कहते थे कि उन्हें 12 साल तक कोई अनाज नहीं खाना है नहीं तो दीक्षा के वक़्त उनकी चोरी पकड़ में आ जाएगी। उन्हें उस दिन जलते अंगारों पर चलना पड़ता है। फिर फल कैसे खरीदते हो, इसके जवाब में एक जोगी ने कहा था कि जब भूख लगती है तब किसी बेचने वाले से एक फल मांग लेते हैं। दो नही, क्योंकि संचय कर नहीं सकते। और यही परीक्षा तो 12 साल तक रोजाना देनी होती है। तब ग्रामीण और कस्बाई भारत में यह स्थिति थी कि जब तक डॉक्टर न लिखे, फल खाने को नहीं मिलते थे। पूजा-पाठ हो तो भी फल खरीदे जाते थे, वैसे नहीं।
जोगियों का खौफ
70-80 के दशक में गांव में खेती और छोटे शहरों में ट्यूुशन पढ़ाने के अलावा कोई रोजगार नहीं था। ट्यूशन में पैसे भी कम थे और कई महीने पर मिलते थे। तब हताश युवा या तो कम्युनिस्ट पार्टियों का झंडा उठा लेते थे या सारंगी उठा कर जोगी बन जाते थे। जैसे ही जोगी गांव में आते, जवान लड़कों पर उनकी मां और शादी हो गई हो तो बीवी, दोनों की चौकसी बढ़ जाती थी। जोगी जो गीत सुबह फेरी लगाते वक़्त गाता था, युवा उसे दिन में गुनगुनाते थे। जोगियों के जाते ही मां और बीवी दोनों राहत की सांस लेती थीं।
जोगियों के राम
जोगी जिस राम का भजन गाते थे वे दरअसल तुलसी के राम न होकर कबीर के राम थे। वे सगुण के उपासक नहीं थे। राम यानी परमतत्व। राम यानी अवधनंदन नहीं। राम यानी सत्य और सत्त। ये जोगी राम मंदिर आंदोलन के बहुत पहले से आते थे लेकिन सांप्रदायिकता या हिंदुओं को एकजुट करने जैसी कोई कोशिश करते नहीं दिखते थे। 1992 के बाद से तो कभी बक्सर में वे दिखे भी नहीं। अधिकतर कबीरपंथियों के मन में जोगियों के प्रति श्रद्धाभाव रहता था। बड़ी वजह यह थी कि जोगियों में जाति को लेकर कोई आग्रह-दुराग्रह नहीं होता था।
मोरा सजना सनेहिया...
1979 में भोजपुरी फिल्म आई थी, बलम परदेसिया। उसका एक गीत चर्चित हुआ था, चढ़ते फागुन जियरा जरी गइले रे, मोरा सजना सनेहिया बिसरि गइले रे। फिल्म में सारंगी बजाता जोगी घूम-घूमकर यह गाना गा रहा है। पूरे गाने में एक दर्द है उसका जो अपने प्रियतम से अलग है। गीत में यह सवाल है कि तुम जहां गए हो क्या उस देस में कोयल नहीं बोलती, क्या वहां पपीहे मर गए हैं? माना जाता है कि कोयल और पपीहे की बोली बिछड़े प्रियतम की याद दिलाती हैं। गीत के हिट होने की वजहों में भोजपुरी भाषी इलाकों में जोगियों का आकर्षण भी था।
बलम परदेसिया का गाना सुनने-देखने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें
Comments