यह नुमाइश सराब की सी है
हस्ती अपनी हबाब की- सी है
यह नुमाइश सराब की- सी है
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की- सी है
मीर तकी मीर ने कई साल पहले जब यह रचना की तो सराब का इस्तेमाल बड़ी नज़ाकत से किया। अब कल से पूरी हिंदी पट्टी इस शब्द को लेकर आंदोलित हो रही है। अंग्रेजीदां भी ज्ञान मंडल का शब्दकोश पलट रहे हैं और शराब और सराब का अंतर बता रहे हैं। सारे मुद्दों को इस एक शब्द ने हाईजैक कर लिया है। लग रहा है अच्छे चलते हवन प्रोग्राम में किसी ने दुष्ट ग्रह का आह्वान कर दिया है।
हालांकि लोकतंत्र के इस हवन में शुरू से ही गड़बड़ियां चल रही हैं। जनता कुछ देवी देवताओं के इर्द गिर्द ही मंत्र बुदबुदा रही है। आसन भी उन्हीं के दिख रहे हैं।डेमोक्रेसी के कई आवश्यक ग्रहों (निर्दलीय, वामपंथियों आदि) के मंत्र तक नहीं पढे जा रहे। वे भी अपनी सुविधानुसार किसी बड़े दल की ओर निगाह लगाए बैठे हैं।
यह लोकतंत्र और उसकी विविधता के लिए खतरनाक है। जब दुनिया दो ध्रुवों में बंटी थी, तो उस शीत युद्ध का अंजाम सब देख चुके हैं। डेमोक्रेसी का महापर्व यानी आम चुनाव सिर्फ दो दलों के गिर्द या एक व्यक्ति के समर्थन या विरोध में डोलना ही सराब यानी मृगतृष्णा है। डेमोक्रेसी के लबों की नाज़ुकी बरकरार और उसे गुलाब की पंखुड़ी- सा तरोताज़ा रखना ज्यादा जरूरी है।
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