राजनिति में भंवर या भंवर की राजनीति
राजस्थान में सियासी संकट वक्ती तौर पर भले टल गया हो और कांग्रेस ने राहत की सांस ली हो, लेकिन एक सवाल यह उठ रहा है कि इस महीने भर की हलचल से किसे क्या मिला? क्या इससे लोकतंत्र कहीं से भी मजबूत हुआ?
चलिए, इस कहानी को हम भी वक्त पर छोड़ देते हैं और चलते हैं राजस्थान की राजनीति को कई बार मंझधार में लाने वाले विधायक भंवरलाल शर्मा की ओर। भंवरलाल शर्मा चुरू जिले की सरदार शहर सीट से जीतते हैं। सात बार विधानसभा पहुंच चुके हैं लेकिन मंत्री एक बार ही बन पाए। रहते विभिन्न दलों में हैं लेकिन लोहिया की इस उक्ति पर सदा भरोसा करते हैं कि 'जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं।' इसलिए राज्य की सरकारों के लिए कई बार संकट खड़ा कर देते हैं। इस बार भी विरोधियों की जमात को जुटाने में इनकी बड़ी भूमिका थी और जब सारी बिसात उलट गई तो जाकर सबसे पहले गहलोत से मिल भी आए। सफलता नहीं मिलती, लेकिन लगे रहते हैं।पिछले बुधवार की शाम जैसलमेर में,जहां गहलोत गुट के विधायक टिके हैं, रेत का भयानक बवंडर उठा था। लोगों को उम्मीद थी कि बारिश भी होगी और गर्मी से राहत मिलेगी। लेकिन बारिश नहीं हुई। आमतौर पर तूफान से पहले शांति होती है लेकिन उस रेतीले तूफान के बाद राजस्थान में सब कुछ शांत होने लगा था। एसओजी ने सचिन पायलट समेत दूसरे नेताओं पर लगाई राजद्रोह की धारा हटा ली थी। बसपा विधायकों की वैधता का मसला 11 अगस्त तक के लिए अदालत ने टाल दिया था। गांधी परिवार मामले के निपटारे के लिए स्रक्रिय होने लगा था। खामोश वसुंधरा ने चुप्पी तोड़ी और दिल्ली जाकर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और राजनाथ सिंह से भी मिल आई थीं। सुप्रीम कोर्ट में यदि बसपा विधायकों की सदस्यता को लेकर चौंकाने वाला फैसला आता है तो फिर राज्य की राजनीति में बवंडर आएगा, नहीं तो सब शांत ही दिख रहा है।
अशोक गहलोत का राजनीतिक प्रबंधन बेहतर है। जब यह विवाद शुरू हुआ था तभी राजस्थान की राजनीति पर नजदीक से नजदीक रखने वालों ने बातचीत के क्रम में कहा था कि कमलनाथ और अशोक गहलोत में अंतर है। सरकार बचने के साथ ही यह अंतर क्या है, यह साबित भी हो गया। इसी विवाद के दौरान उन्होंने राज्य की न्यायिक सेवा में गुर्जरों समेत पांच जातियों के एक फीसदी से बढ़ाकर पांच फीसदी रिजर्वेशन भी दे दिया और सचिन पायलट प्रकरण से उपजी गुर्जर नाराजगी को दूर करने का पांसा भी फेंक दिया था।
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