राहत पर आफत
शायर राहत इंदौरी मौत के बाद से चर्चा में हैं। उनके कुछ शेर पर जितनी बहस अब हो रही है, उतनी शायद उनके जीते जी भी नहीं हुई होगी। लगातार विवाद बढ़ता जा रहा है। इन्हीं में से एक है घुटनों वाला।
राहत के चाहने वाले कह रहे हैं कि शायर का समग्रता में मूल्यांकन होना चाहिए, किसी एक रचना से नहीं। हालांकि यह भी सच है कि कभी-कभी कोई रचना कवि या शायर की पहचान बन जाती है। गुलेरी की 'उसने कहा था' ऐसी ही रचना है। तुलसीदास ने कई रचनाएं की, लेकिन अधिकतर लोग रामचरित मानस को ही जानते हैं। बच्चन कभी 'मधुशाला' से मुक्त नहीं हो पाए और नीरज 'कारवां गुजर गया' से।
कुछ साल पहले निदा फ़ाज़ली की भी मौत हुई थी। उस निदा की जिन्होंने
'अंदर मूरत पर चढ़े घी-पूरी मिष्ठान्न
बाहर दरवाजे खड़ा ईश्वर मांगे दान।'
लेकिन विरोध नहीं हुआ क्योंकि इसी के साथ निदा यह भी कहते हैं कि
'बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।'
कबीर 'मन ना रंगाए, रँगाये जोगी कपड़ा' के साथ-साथ 'क्या बहरा हुआ खुदाय' का सवाल भी उठाते थे। उनकी मौत के बाद हिन्दू-मुसलमान दोनों उन्हें अपना बता रहे थे।
स्कूली शिक्षा के दौरान ही पेपर में ऐसा सवाल सभी ने सॉल्व किया होगा, जिसमें प्रस्तुत पंक्तियों की सोदाहरण और सन्दर्भ सहित व्याख्या करने को कहा जाता है। राहत की विवाद में आईं रचनाओं की भी इसी फार्मुले पर व्याख्या होनी चाहिए। आखिर उनकी छवि सड़क छाप शायर की तौ है नहीं कि उनकी रचनाओं में सन्दर्भ न होकर सिर्फ काफिया मिलाया गया हो या तुष्टीकरण के लिए हो। फिर यह सामने आ जाएगा कि क्या राहत ने सिर्फ भीड़ से दाद पाने के लिए भी कुछ निरर्थक शेर पढ़े थे या उनका संदर्भ और प्रासंगिकता क्या थी
? अगर इसका जवाब तुरन्त न मिला तो आगे विवाद गहराएगा ही, कम नहीं होगा।
हां, भाषा की शिष्टता जरूरी है। विरोध में भी और समर्थन में भी। वैसे जिन शेर पर विरोध हो रहा है, क्या अच्छा होता कि उनका मसला दो-चार दिन पहले उठ जाता तो राहत ही उसका जवाब दे देते या लाजवाब हो जाते।
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