छूट रहे हैं परिंदों से पेड़
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परिंदों के नाम पर चलने वाले एनसीओ और सरकारी नुमाइंदे ऐसे फ्लैट पर लहालोट हो रहे हैं |
बसता वह कहीं पहाड़ों में, शैलों की फटी दरारों में।
-रश्मिरथी
क्या आपने परिंदों का घोंसला देखा है? उसकी मजबूत बनावट को महसूस किया है? क्या आपको हर पक्षी में जन्म से मौजूद इंजीनियर, हेल्पर, लेबरर दिखा है? प्रसव से पहले घोंसले बनाने की दूरदर्शिता दिखी है? उनके लिवइन रिलेशनशिप में ईमानदारी और समर्पण महसूस किया है?
अगर आपने यह सब महसूस किया है और यदि उनके लिए कुछ करना चाहते हैं तो उनके प्राकृतिक आश्रय स्थल यानी पेड़ों को घना होने दीजिए। मनुष्यों की तरह उन्हें एलआईजी, एमआईजी, एचआईजी और विला में क्यों बांटना चाहते हैं। क्या आप ये चाहते हैं कि कोयल अपने अंडे छोड़ने के लिए कौए के फ्लैट का पता पूछती रहे और फिर अपने अंडों के साथ उसका डोरबेल बजाए? तब कौआ क्या कोयल को अपने फ्लैट में एंट्री करने देगा? उनके बीच तो शुरू से ही सोशल डिस्टेंसिंग होती है।
बाज़ के बच्चे आंगन में नहीं फुदकते और गौरैया ऊंची उड़ान नहीं भरती। दोनों की अपनी फितरत होती है। मांसाहारी कौवा आंगन में दिखता है, लेकिन चील नहीं। नीलकंठ को देखना हिंदू शुभ मानते हैं, लेकिन उसे पालते नहीं। कबूतर गंदगी फैलाते हैं, लेकिन प्रासादों के कनकाभ शिखरों पर ही रहते हैं। प्राचीन काल में मनुष्य घरों के पास पर्यावरण संरक्षक बांस के झुरमुट लगाता था। बांस से सूप बनता था। सूप से अनाज फ़टका जाता था और इस प्रक्रिया में निकलने वाले महीन कण को गौरैयों का झुंड खाता था। यह साइकल टूट चुकी है और गौरैया बचाने के नाम पर बने एनजीओ लहलहा रहे हैं। परिंदों को एनजीओ वाले पता नहीं कैसे समझाते होंगे कि इस फ्लैट का मालिकाना हक तुम्हारा है, बस प्रकृति से मिले अपने इंजीनियरिंग के गुणों को भूल जाओ।
एक घना पेड़ होता है, जिस पर चिड़िया, सांप, गिलहरी, तोते, कौए सभी रहते हैं। चिड़िया यहीं घोंसले में अंडे देती है, उसे सेती है और फिर उनसे बच्चे निकलते हैं। द्विज। यहीं सांपों से उनका जीवन-मरण का संग्राम चलता है। उन्हें पता चलता है कि चोंच से हमले भी किए जा सकते हैं और पंख सिर्फ सजावटी चीज नहीं हैं। यह संघर्ष, यह जिजीविषा का भाव ही उन्हें जिंदा रखता है, फ्लैटों के सुरक्षित वातावरण में तो वे सिर्फ पलायन ही सीख सकते हैं।
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