बनारस की दालमंडी : अब यहां महफिलों के साजिंदे नहीं, दुकानों के कारिंदे दिखते हैं
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बनारस का चौक थाना जो दालमंडी तिराहे पर स्थित है। वैसे शहर कोतवाल तो काल भैरव हैं। |
यह है बनारस का चौक थाना। मैदागिन से विश्वनाथ मंदिर या दशाश्वमेध घाट की ओर जाने वाले रास्ते पर पड़ता है। इसके अगले मोड़ पर बन रहा है विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर और इसके ठीक बगल में है दालमंडी, जो अपना पुराना रुतबा और पहचान दोनों खो चुकी है।
'गुंडा' कहानी में जयशंकर प्रसाद लिखते हैं कि जब कभी नन्हकू सिंह चौक में आता तो काशी की रंगीली वेश्याएं मुस्कुराकर उसका स्वागत करतीं। वह ऊपर कोठे पर नही जाता, बल्कि वहीं मन्नू तमोली की दुकान पर बैठे-बैठे उनका गाना सुनता और नाल पर से जीते रुपये उछालता। आमतौर पर चौराहे को चौक भी कहा जाता है। यहां दरअसल चौक नहीं है, लेकिन इसका नाम चौक है। हुआ यह होगा कि दालमंडी में कोठों के आबाद होने के बाद जब वंशी का जुआघर (पढ़ें जयशंकर प्रसाद की कहानी गुंडा) भी यहाँ चलने लगा होगा तब कानून व्यवस्था को संभालने के लिए पुलिस चौकी बनी होगी। बाद में जब वह थाना बना होगा तो जाहिर है कि चौकी नाम हटना था, तो वह थाना चौक हो गया होगा।
अब बात दालमंडी की। "काशी का अस्सी' उपन्यास में काशीनाथ सिंह बनारस की एक चर्चित कहावत का उल्लेख करते हैं- इयं महात्मा करपात्र दंडी, यदा-कदा गच्छति दालमंडी। बनारस वाले किसी को छोड़ते तो हैं नहीं सो किसी महात्मा का दालमंडी जैसे इलाके में आने-जाने का दावा करने की हिम्मत दिखाते (भले ही मज़ाक में) रहते हैं।
दालमंडी से आनेवाली घुंघरुओं की आवाज़ से सोने और विश्वनाथ मन्दिर के घण्टों घड़ियालों की आवाज़ सुनकर जगने वाले शहर में घुंघरुओं की सदा कई बरस से बंद है। तबले खामोश हैं, हारमोनियम हांफ चुके हैं और अदब का अंजुमन उजड़ चुका है। वहां न वंशी का जुआखाना है न कोई नन्हकू सिंह वहां आता है जिसका स्वागत काशी की रँगीली वेश्याएं मुस्कुराकर करें। न कोई कुबरा मौलवी वहां पहुंचता है, जिसे बाबू नन्हकू सिंह बनारसी झापड़ रसीद करेंऔर न ही यहां से कोई दुलारी रामनगर के किले में भजन गाने ससम्मान जाती है। लोग पान तो खाते हैं लेकिन कोई किसी तमोली की दुकान पर नहीं बैठता। अब यहां महफिलों के साजिंदे नहीं बल्कि दुकानों के कारिंदे दिखते हैं। जब कोठे आबाद थे, तब गली की इज़्ज़त थी। अब कोठे नहीं रहे और सिर्फ दुकानें रह गईं तो गली बदनाम है। चीजें दूसरे इलाकों के मुकाबले यहां सस्ती मिलती हैं, पर आम बनारसी यही सोच कर यहां नहीं आता कि कहीं कोई यह न कह दे कि का गुरु, अब अइसही पइसा बची?
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मिर्जापुर कईल गुलज़ार हो, कचौड़ी गली सून कईल बलमू...
कहा जाता है कि इस कजरी को सबसे पहले सुंदर वेश्या ने गाया था और इसकी रचनाकार भी वही थीं। सुंदर के बारे में इंटरनेट पर बहुत जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन इतना सभी मानते हैं कि वह ब्रिटिश काल में थीं, 1857 में क्रांति की पहली कोशिश के बाद। उस क्रांति के बाद मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र को काला पानी की सज़ा देकर देश निकाला दे दिया गया था।
बनारस की मशहूर कचौड़ी गली की लोकेशन देखिये। यह बाबा विश्वनाथ की गलियों में है। चौक थाने के आगे, दालमंडी के पास। दालमंडी तब बाई जी लोगों का इलाका हुआ करता था।
इसका पहला पैरा सुनिए। ओहि मिर्जापुरवा से उड़ेली जहज़िया, पिया चली गइले रंगून हो, कचौड़ी गली....
क्या यह विरह रस में डूबी सामान्य कजरी है या फिर क्रांति के नायकों का अफसाना? आखिर वह कौन था जो बनारस की कचौड़ी गली छोड़कर मिर्जापुर चला गया था या अंग्रेज़ी हुकूमत ने उसे जिलाबदर कर दिया था? और वहां से उसे रंगून भेज दिया गया था। वह कौन था, जिसके लिए एक बाईजी का दिल रो रहा था अथवा यह प्रतीकात्मक था, कला पानी की सजा पाए सभी लोगों के लिए। जहाज़ उड़ने की बात अतिशयोक्ति है, पर गीत और कविता में इतनी छूट ली जाती है। कहानी में एक और ट्विस्ट है। सुंदर मिर्जापुर की थीं,लेकिन ऐसा लगता है कि कजरी बनारस में बैठकर गाई जा रही है।
ऐसे सभी रचनाकारों और ब्रिटिश काल में इसे गाने वालों को नमन। जो लोग आज भी इस गीत को जिंदा रखे हुए हैं, उनका भी आभार।
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