एक था माराडोना, जो हमेशा जिंदा रहेगा

फोटो : गूगल से
1983 में क्रिकेट का प्रूडेंशियल वल्र्ड कप जीतने के बाद भारत में  क्रिकेट और भी लोकप्रिय हो रहा था। बालक-युवा सभी इसके दीवाने  थे। शहरों से भी अधिक कस्बाई और ग्रामीण भारत में। उसी समय  1986 में फुटबॉल का विश्व कप मेक्सिको में हुआ। महीने भर का कुंभ। और इस कुंभ से निकले थे डियेगो माराडोना, जिनकी लोकप्रियता का डंका उनके देश से निकलकर भारत समेत पूरी दुनिया में बजने लगा  था। लोग क्रिकेट के साथ फिर से फुटबॉल को तरजीह देने लगे थे। उनकी 10 नंबर की जर्सी ही नहीं बाएं कान की बाली भी हिट हो चुकी थी। 1983 में कपिल देव बनने का सपना देखने वालीं कई आंखें माराडोना बनने का ख्वाब सजाने लगी थीं। छोटे कद के इस  गठीले और फुर्तीले खिलाड़ी ने यह दिखा दिया था कि किस तरह मिड फील्ड से गेंद लेकर न सिर्फ गोलपोस्ट तक पहुंचा जा सकता है, बल्कि गोल भी मारा जा सकता है। 

भारत के लोग माराडोना से एक बच्चे की तरह प्यार करते थे। एक ऐसा बच्चा जो बिगड़ा हुआ भी है लेकिन वक्त पर काम आता है। पेले की  लोग इज्जत करते थे, पर माराडोना से प्यार। 1986 में ही जब क्वॉर्टर फाइनल में माराडोना के हाथ से लगकर इंगलैंड के खिलाफ पहला गोल हुआ और माराडोना ने उसे हैंड ऑफ गॉड करार दिया तो सबने उसे माराडोना की शैतानी समझकर माफ कर दिया था। 1990 के फाइनल में जब अर्जेंटीना की टीम पश्चिम जर्मनी से हारी, तब भारत में लोग ऐसे दुखी थे, मानो मैच माराडोना की टीम नहीं, भारत की टीम हारी हो।

बाद में माराडोना और भी कई वजहों से चर्चित हुए। कभी ड्रग्स लेने को लेकर तो कभी पत्रकारों पर एयरगन से हवाई फायरिंग को लेकर। कभी उनकी वील चेयर पर बैठी फोटो आईं जब वह ओवरवेट हो गए थे। बाद में वह अर्जेंटीना के कोच भी बने, लेकिन अपने देश को फीफा कप नहीं दिलवा सके।

माराडोना के कैरियर में 1986 के टूर्नामेंट का बड़ा रोल है। कस्बाई भारत के लिए यह पहला मौका था जब लोग महीने भर तक रात-रात भर जागकर मैच देखते थे और अगले दिन दफ्तर और अपनी दुकानों में ऊंघते रहते थे। 

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