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Showing posts from 2021

क्या श्याम जी करेंगे बेड़ा पार?

एक दिसंबर 2021 को जब यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने ट्वीट कर कहा कि अयोध्या, काशी भव्य मंदिर निर्माण जारी है, मथुरा की तैयारी है। साथ ही हैश टैग लगाकर जय श्रीराम, जय शिव शंभू और फिर जय श्री राधे कृष्ण लिखा तो यह अनायास नहीं था।  दिसंबर बीतते-बीतते 29 तारीख को अमरोहा की सभा में सीएम योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या-काशी का जिक्र करने के बाद जब कहा कि मथुरा-वृंदावन कैसे छूटेगा, तो साफ हो गया कि वह मौर्य की बात को आगे बढ़ा रहे हैं। सीएम ने कहा कि ब्रज तीर्थ विकास परिषद बना कर वहां भी विकास कार्यों को नई गति दी जा रही है। जनम्ष्टमी के मौके पर यूपी में कोरोना की वजह से लगे नाइट कर्फ्यू में ढील दी गई थी और मथुरा पहुंचे सीएम ने मथुरा में मांस और मदिरा की बिक्री रोकने का ऐलान किया था।   अयोध्या और काशी के बाद मथुरा का मसला आना था। यह अस्वाभाविक नहीं है। राम, कृष्ण और शिव इनको भारतीय परंपरा में कोई नकार नहीं सकता। जिस तरह से अयोध्या का अदालत के फैसले से समाधान निकला और मंदिर निर्माण कार्य चल रहा है उसी तरह मथुरा के विवाद का भी अंत होना चाहिए। हां, मथुरा के नाम पर कई चुनाव निका...

हवाई अड्डे पर किसानों पर फोकस रहे योगी

अब से थोड़ी देर पहले नोएडा इंटरनैशनल एयरपोर्ट के शिलान्यास के मौके पर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ पूरे चुनावी तेवर में दिखे। अपने संबोधन में उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से गन्ने की मिठास जोड़ी वहीं, यह भी कहा कि कुछ लोगों ने गन्ने की मिठास कड़वाहट में बदल करके दंगों की श्रृंखला खड़ी की। उन्होने सवालिया लहजे में कहा कि देश गन्ने की मिठास को नई उड़ान देगा या जिन्ना के अनुयायियों से दंगा करवाने की शरारत करवाएगा? हाल ही में तीन केंद्रीय कृषि कानूनों को वापस लेने की प्रधानमंत्री मोदी की घोषणा के बाद हुए इस आयोजन में योगी ने अपने संबोधन में किसानों को साधने की कोशिश की। उन्होंने नोएडा एयरपोर्ट के लिए जमीन देने वाले उन सात हजार किसानों का खास तौर पर शुक्रिया अदा किया, जिन्होंने लखनऊ जाकर बिना किसी विवाद के जमीन उपलब्ध करवाई। ...

किधर हो कॉमरेड?

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राजनीतिक क्षेत्र की पुरानी कहावत है कि किशोरावस्था और युवावस्था की संधि बेला में आप कम्युनिस्ट नहीं हुए तो आपके पास दिल नहीं है और कुछ समय बाद आपने कम्युनिज्म छोड़ा नहीं तो आपके पास दिमाग नहीं है। यह थ्योरी कितनी सही है, पता नहीं, लेकिन लगातार कम्युनिस्ट विचारधारा और उसमें से भी छात्र नेताओं का विपरीत विचारधारा वाले दलों में जाना तो इसे सही ही साबित करता है। दिमाग परिपक्व होते ही वे नए दल में चले जा रहे हैं। जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार कांग्रेस में चले गए हैं। वह एआईएसएफ से जुड़े थे जो सीपीआई की स्टूडेंट विंग है। 2019 के लोकसभा चुनाव में सीपीआई ने उन्हें बेगूसराय से कैंडिडेट बनाया था लेकिन वह बीजेपी के गिरिराज सिंह से हार गए थे। कन्हैया कुमार के समर्थन में देश भर से कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े लोगों का मजमा बेगूसराय में लगा रहा था, जिसे कई लोग लेनिनग्राद बताते हैं। एक सवाल यह उठता है कि क्या सीपीआई कांग्रेस के करीब है? इमरजेंसी के दिनों की बात करें तो सीपीआई यानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़ी थी। इमरजेंसी के विरोध में होने वाली सभाओं को ...

चर्चा में भाला

टोक्यो ओलंपिक में जेवलिन थ्रो में भारत के नीरज चोपड़ा को स्वर्ण पदक मिलने के बाद भाला पहली बार चर्चा में है। महाभारत काल में पांडु पुत्र युधिष्ठिर का यह प्रिय हथियार था और कहा जाता है कि वह भाला युद्ध में प्रवीण थे। हालांकि उससे पहले रामायण काल में भाले का जिक्र नहीं आता। टीवी धारावाहिकों में रावण के सैनिक जरूर भाले के साथ दिखते हैं, लेकिन वह आधुनिक ब्याहघरों से प्रभावित लगता है जहां दो लोग राजतंत्र के जमाने की वेशभूषा में भाला लेकर खड़े रहते हैं।   श्याम नारायण पांडेय ने काव्य ‘हल्दी घाटी’ में निर्जीव हथियारों में भी प्राण प्रतिष्ठा कर दी थी। कई जगह उन्होंने भाले का जिक्र किया है। प्रथम सर्ग में ही जब महाराणा प्रताप अपने भाई शक्ति सिंह के साथ शिकार के लिए चले तो श्याम नारायण पांडेय लिखते हैं -  राणा भी आखेट खेलने, शक्त सिंह के साथ चला  पीछे चारण, वंश पुरोहित, भाला उसके साथ चला और उसी आखेट क्षेत्र में जब दोनों किसी कारणवश आमने-सामने तन गए तो कवि ने लिखा -  क्षण-क्षण लगे पैंतरा देने, बिगड़ गया रुख भालों का  रक्षक कौन बनेगा अब इन, दोनों रण मतवालों का कई जगह ज...

ब्राह्मण शंख बजाएगा, पर हाथी किधर जाएगा?

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अयोध्या सम्मेलन की तस्वीरें। फोटो : खेमराज वर्मा 23 जुलाई यानी शुक्रवार को अयोध्या में बसपा का एक सम्मेलन हुआ, जिसे पहले ब्राह्मण सम्मेलन नाम दिया गया था, फिर ऐन वक्त पर उसे ‘प्रबुद्ध वर्ग विचार गोष्ठी’ नाम दे दिया गया। इस सम्मेलन में परंपरागत नारों के अलावा जय श्रीराम और जय परशुराम के भी नारे लगे। बीबीसी की रिपोर्ट है कि नारे तो परशुराम के नाम के जरूर लगे, लेकिन मंच पर उनकी कोई फोटो नहीं थी। इस बारे में पूछे जाने पर सम्मेलन में मौजूद लोगों ने बताया कि मंच पर फोटो तो उसी की लगेगी, जिसने समाज के लिए कुछ किया हो। राम और परशुराम के जयघोष के बीच जब बीबीसी ने सतीश चंद्र मिश्रा को बसपा के पुराने विवादास्पद नारों की याद दिलाई तो  उन्होंने कहा कि ये नारे न तो किसी बसपा नेता ने कभी लगाए और न ही ऐसै  नारे कभी मंच से लगाए गए। सतीश चंद्र मिश्रा ने वहां तमाम धार्मिक कर्मकांड किए और उन्हें गिनाया भी। वैसे यह भी हैरान करने वाली बात है कि जब सतीश चंद्र मिश्रा यह बता रहे थे कि प्रदेश में 13 फीसदी ब्राह्मण और 23 फीसदी दलितों के पास ही सत्ता की चाबी है, उसके अगले दिन शनिवार को राजद नेता तेजस्वी ...

गुरु : बंधु भी बनो और सखा तुम्हीं

आज गुरु पूर्णमा पर तमाम लोग गुरुओं के प्रति श्रद्धा भाव प्रदर्शित कर रहे हैं। इसे ऋषि ऋण भी मान सकते हैं। तीन ऋण लेकर मनुष्य जनमता है-देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। पूजा-पाठ और हवन यज्ञ से मनुष्य देव ऋण से उऋण होता है और संतान उत्पति करने से पितृ ऋण से। विद्या अर्जन और उसका प्रसार करने से मनुष्य ऋषि ऋण से मुक्त हो जाता है। ऋषियों को गुरु की श्रेणी में रखा जा सकता है।  गुरु वह है जो हमारा धर्म परिवर्तन कराए। धर्म परिवर्तन यानी विचारों में परिवर्तन। किसी एक धर्म से दूसरे धर्म में गमन की क्रिया नहीं। एक धर्म से दूसरे धर्म में गमन की क्रिया धर्मांतरण कही जाती है।  विचारों में परिवर्तन करवाने वाले को गुरु माना जाए तो रामचंद्र सुग्रीव के गुरु हुए। सुग्रीव तो अपने बड़े भाई बालि के भय से हनुमान और जामवंत आदि सचिवों के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर छिप कर रह रहे थे। राम उनके विचारों में परिवर्तन लाए और इसके बाद ही सुग्रीव अपने भाई बालि के साथ युद्ध को तैयार हुए। हालांकि इसकी एक वजह यह भी थी कि राम ने उन्हें भरोसा दिया था कि बालि से संग्राम के दौरान वह उनकी मदद करेंगे, यह आश्वासन भी सुग्रीव के विचार...

जिल्ले इलाही

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सत्ता केंद्र की कमजोरी होती है, वह अपने सामने किसी को पनपने नहीं देना चाहता, भले वह कितना भी बेहतर परफ़ॉर्मर हो। इस कवायद में भले सत्ता नष्ट हो जाए, यह मंजूर होता है। यदि किसी ने केंद्रीय नेतृत्व का बिना आशीर्वाद लिए किसी मौके पर या लगातार बढ़िया उपलब्धि हासिल कर ली, तो नेतृत्व इस ताक में लग जाता है कि कब और कैसे उसे फंसाया जाए? निपट तो वह खुद ही जायेगा। पंजाब विधानसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस जीती और उसकी सरकार बनी। लेकिन परफॉर्म तो कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बेहतर किया था, बिना केंद्रीय नेतृत्व के भरोसे, लिहाजा जीत का श्रेय न सोनिया गांधी एंड फैमिली को मिला, न मिलना चाहिए था। लोग पांच साल तक कैप्टन की जीत की ही बात करते रहे।  अब फिर चुनाव का वक्त आ गया है। केंद्रीय नेतृत्व वहां पार्टी का प्रदर्शन कमज़ोर करने को तैयार है, लेकिन कैप्टन को फ्री हैंड देने को राजी नहीं। उसने नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया, जो पहले भाजपा में थे और कुछ दिनों से आम आदमी पार्टी का गुणगान कर रहे थे। राजनेता के रूप में सिद्धू का कद क्या कैप्टन जितना बड़ा है, इसका जवाब कांग्रेस को पारिवारिक पार्टी ब...

देव स्वतंत्र नहीं रहेंगे या मऊ में अरविंद (कमल) खिलाने की रणनीति

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अरविंद कुमार शर्मा या एके शर्मा। यह नाम थोड़ी देर पहले चर्चा में आया है। यूपी का प्रदेश उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद। चर्चा की एक वजह यह भी है कि आईएएस अधिकारी रह चुके शर्मा को जिनके पास न संगठन चलाने का अनुभव है न जनाधार, उन्हें उस राज्य में संगठन में इतना जिम्मेदार ओहदा क्यों दे दिया गया, जहां अगले साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं। यह भी कहा जा रहा है कि कुछ दिनों से इनका नाम डिप्टी सीएम के लिए आगे किया जा रहा था, जिस पर अब विराम लग गया है। वैसे अरविंद शर्मा की राजनीति में एंट्री भी चौंकाने वाली थी। बीजेपी में शामिल होते ही एमएलसी कैंडिडेट घोषित कर दिए गए थे। गुजरात कैडर के इस पूर्व नौकरशाह को प्रधानमंत्री मोदी का करीबी माना जाता है। आज के बदलाव के कुछ कयास हैं। या तो विधानसभा चुनाव के टिकट वितरण के दौरान प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष स्वतंत्र नहीं रहेंगे। टिकट वितरण में केंद्रीय नेतृत्व को जिस नाम पर ऑब्जेक्शन लगवाना होगा, वह अरविंद शर्मा के माध्यम से लगवाया जाएगा।  या यह कि अरविंद शर्मा को मऊ सदर से विधानसभा सीट से चुनाव लड़ाया जाए, जहां से मुख्तार अंसारी 2017 में बसपा के टिकट पर ...

नाम में क्या रखा है? कन्फ्यूजन

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यह पुराना सवाल है कि नाम में क्या रखा है? सवाल यह भी है कि सरनेम में क्या रखा है? जाहिर है या तो पहचान क्लियर या कन्फ्यूजन। दो दिन पहले कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में गए जितिन प्रसाद के मामले में भी यही हुआ। जितिन की कहानी यही छोड़कर हम चलते हैं यूपी के शो विंडो नोएडा में और वहां इसका एक और तमाशा देखते हैं। 2014 में लोकसभा का चुनाव हुआ था। 2012 में नोएडा विधानसभा सीट से विजयी डॉ. महेश शर्मा के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद यह सीट खाली हुई थी। यहां हुए उपचुनाव में बीजेपी ने प्रत्याशी बनाया था विमला बाथम को जबकि उनकी ्प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थीं सपा की काजल शर्मा। काजल शर्मा जैसा कि सरनेम से पता चलता है, ब्राह्मण हैं। विमला बाथम को लेकर उनके विरोधियों ने खबर फैला दी कि वह ईसाई हैं। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान विमला बाथम को यह बात लगातार कहनी पड़ी कि वह वैश्य हैं। बाथम सरनेम से किसी और जाति-धर्म का मतलब नहीं। जितिन प्रसाद के बीजेपी जॉइन करते ही यह खबर तेजी से फैली या फैलाई गई कि वह प्रदेश में बड़े ब्राह्मण चेहरा हैं और इसलिए बीजेपी उन्हें अपने पाले में लेकर आई है। अब इनके सरनेम से तो ब्राह्म...

इमेज बनाने की कोशिश में गोइठा पाथ दिया 'महारानी' ने

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कुछ सच्चे पात्रों के साथ फर्जी कहानी। 2020 में जंगलराज की वजह से बिहार विधानसभा का चुनाव हारने के बाद अगले चुनाव से पहले उस पर पर्दा डालने की कोशिश। चारा घोटाला को दाना घोटाला कह कर नाम को लेकर कन्फ्यूज करने का प्रयास और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर ही नहीं, बल्कि उसे पूरी तरह सहूलियत के मुताबिक दिखाने की कला का प्रदर्शन। कहानी भी सच्ची घटना से मिलती-जुलती रखिए, जगह का नाम भी जो हकीकत में है उसे रखिए और यह भी कह दीजिए कि यह सब काल्पनिक है। इसलिए कोई अगर किसी सच्ची घटना पर आधारित या उसके आसपास की मूवी या वेब सीरीज बनाता है, तो वह कितनी छूट ले सकता है, इसकी सीमा रेखा तय करने का भी वक्त आ गया है। इस वेब सीरीज के बाद बिहार के रास्ते सिर्फ ट्रेन या प्लेन से गुजरने वाले भी एक बार फिर बिहार के बारे में लिखने-बोलने लगेंगे। एक बार फिर मायावती और ममता के बराबर का कद राबड़ी देवी का बताने वाले समीक्षकों की बाढ़ आ जाएगी। कुल मिलाकर यह वेब सीरीज राजनीतिक मकसद हासिल करने के इरादे से बनाई गई है, लेकिन इसे रियल स्टोरी बताने से भी गुरेज किया गया है। फैक्ट से छेड़छाड़ लालू यादव ने जब बिहार का सीएम और वित्त मंत्री ...

कोरोना : सामूहिक क्रीमैशन क्यों नहीं?

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कोरोना काल में जिस तरह लोगों की मौत हो रही है, उनसे श्मशान-कब्रिस्तान में लाशों की कतार दिख रही है। सवाल यह है कि क्या सामूहिक दाह संस्कार या सामूहिक सुपुर्दे खाक की प्रक्रिया नहीं अपनाई जा सकती? बक्सर में 1764 में जो इतिहास प्रसिद्ध लड़ाई हुई थी, उस युद्ध के मैदान के बगल में एक कब्रगाह भी है। उसमें उस युद्ध में मारे गए सभी मुसलमान सैनिक दफन हैं। कहा जाता है कि इस्लाम में ऐसा प्रावधान है कि युद्ध में मारे गए सैनिकों की सामूहिक कब्र बनती है। आज इमरजेंसी के हालात हैं, क्या आज ऐसा इंतजाम नहीं हो सकता? केदारनाथ में 2013 में जो आपदा आई थी, उसमें भी शवों का सामूहिक दाह संस्कार किया गया था। महाभारत काल में कहा जाता है कि भीम ने जब किंचक का वध किया तो उसके बाकी बचे 99 भाई भीम को सबक सिखाने वहां आ गए थे। भीम ने श्मशान घाट में इन सभी को मार डाला था, और सामूहिक चिता पर सभी को जला दिया था। तो क्या अब के हालात में सामूहिक चिताएं नहीं बन सकतीं? दफनाने के लिए जगह कम पड़ती जा रही हैं, जलाने के लिए लकड़ियां नहीं मिल रही हैं, विद्युत शवदाह गृह जरूरत के मुताबिक हैं नहीं, तो समाधान तो यही हो सकता है कि साम...

कोरोना : बेड का संकट और सेना के फील्ड हॉस्पिटल

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कोरोना के द्विरागमन में सामान्य बेड, ऑक्सिजन बेड, ऑक्सिजन और ऑक्सिजन सिलेंडर की कमी की खबरें लगातार आ रही हैं। क्या सिर्फ यह कहकर बैठा जा सकता है कि इस इंफ्रास्ट्रक्चर में कितना करें? क्या वक़्त नहीं आ गया है कि इसमें सेना की मदद ली जाए? इंडियन आर्मी की बात करें तो इसके तकरीबन 40 डिविजन हैं। एक डिविजन में दो फील्ड हॉस्पिटल होते हैं। इस लिहाज से कुल फील्ड हॉस्पिटल हुए कम से कम 80 और इनमें से अधिकतर सालों भर इनएक्टिव रहते हैं। कुछ जरूर इस समय भी सीमावर्ती इलाकों में चल रहे होंगे, लेकिन इनका मुख्य इस्तेमाल युद्ध काल में ही होता है। अगर एक डिविजन से एक फील्ड हॉस्पिटल भी सिविल ड्यूटी में लगा दिया जाए तो हालात पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। इन फील्ड हॉस्पिटल में सिर्फ बेड ही नहीं, बल्कि ड्रेसिंग रूम, पोर्टेबल ओक्सिजन सिलेंडर और ऑपेरशन थिएटर तक होते हैं। अभी ओटी की जरूरत तो है नहीं, सिर्फ सामान्य बेड और ऑक्सिजन बेड वाले फील्ड हॉस्पिटल सेना तुरंत तैयार भी कर देगी। अब उसमें सेना का भी मेडिकल स्टाफ रहे और जरूरत के मुताबिक सिविल मेडिकल स्टाफ भी सपोर्ट करे। विवाद ऑक्सिजन का दिल्ली और हरियाणा स...

टिकैत के राजस्थान दौरे से किसे राहत?

यूपी-दिल्ली सीमा पर चल रहा  आंदोलन किसान आंदोलन है या जाट आंदोलन, यह मसला कई बार उठ चुका है। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत इस आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बन गए हैं। कुछ दिनों तक हरियाणा में घूम-घूमकर पंचायत करने के बाद इन दिनों वह राजस्थान के दौरे पर हैं। हरियाणा में जिन इलाकों में उनकी सक्रियता रही और अब राजस्थान के चुरू से लेकर सीकर तक वह पहुंचे, उससे सीधा दिख रहा है कि वह सिर्फ स्वजातीय यानी जाटों के प्रभाव वाले इलाकों में जा रहे हैं। वहां वह भले केंद्र सरकार और भाजपा पर बरसते दिख रहे हों, लेकिन जो वे कर रहे हैं, उससे  राहत में भाजपा ही  रहेगी। राजस्थान का सचिन पायलट प्रकरण याद करिये। उस विवाद के तुरंत बाद राज्य की राजनीति में हाशिये पर चले गए जाट नेताओं को लुभाने की कोशिश  हुई। कांग्रेस ने गोविंद सिंह डोटेसरा (जाट) को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो बीजेपी ने सतीश पूनिया (जाट) को। बीजेपी की जाट प्रदेश अध्यक्ष बनाने की एक मंशा वसुंधरा राजे पर भी कंट्रोल रखना था जो पैदा तो राजपूत परिवार में हुई हैं लेकिन राजस्थान में जाट परिवार में शादी होने के बाद उनकी रा...

ऐसे टिके हैं टिकैत !

  किसान आंदोलन का एकमात्र चेहरा बन चुके राकेश टिकैत ने कहा है कि वे बंगाल में भी जाकर किसान पंचायत करेंगे। इसके पहले उन्होंने 2024 तक आंदोलन करने की बात कही।  बंगाल में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और 2024 में आम चुनाव होगा। इन दोनों बयानों से साफ लग रहा है कि टिकैत किसी खास एजेंडे पर काम कर रहे हैं और केंद्र सरकार और बीजेपी के खिलाफ हैं। लेकिन इसके साथ ही टिकैत हरियाणा के जाट प्रभाव वाले इलाकों जींद, कुरुक्षेत्र, सिरसा में भी सक्रिय हो रहे हैं, जहां जाट वोट पर आधारित जजपा और इनेलो का जनाधार है। जजपा हरियाणा में बीजेपी के साथ सरकार चला रही है लेकिन रिश्ते बहुत भरोसेमंद नहीं हैं। जजपा ने नौकरियों में स्थानीय युवाओं के लिए रिजर्वेशन लागू करवा लिया है। बीजेपी के बाहर से आकर बसे वोटर इसे लेकर सहज नहीं हैं। जब से टिकैत की हरियाणा में सक्रियता बढ़ी है तो जाहिर है कि इनेलो और जजपा के नेता परेशान होंगे। अब जजपा के सामने नई चुनौती टिकैत का काट खोजने की होगी और जब तक वह इस काम में लगी रहेगी, वह बीजेपी पर प्रेशर नहीं बना पाएगी। विधानसभा चुनाव में बीजेपी के कई जाट दिग्गज चुनाव हार गए थे। जजपा...