बाबूजी मैं ही माधो सिंह हूं'
आप जेपी को जानते हैं? लेकिन किस रूप में? 1974 की संपूर्ण क्रांति के नायक के रूप में या 1942 के आंदोलनकारी और हजारीबाग जेल से दिवाली की रात भागने वाले क्रांतिकारी के रूप में? इसके अलावा जेपी का एक और रूप है, दस्युओं या बागियों को सरेंडर करवाने वाला। जेपी के अनुयायी रहे और उस दौरान संघर्ष वाहिनी में होल टाइमर रहे श्रीनिवास जी के मुताबिक, जेपी के इस व्यक्तित्व का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है।
उनके मुताबिक, यह बहुप्रचारित बात है. 1970-71 में कभी जेपी के कदमकुआं, पटना स्थित मकान में चलने वाली चर्खा समिति में राम सिंह नामक शख्स करीब महीने भर रहा था। राम सिंह ने बताया था कि वह चंबल मे ठेकेदार हैं और वहां के कई दस्यु सरेंडर करना चाहते हैं। जेपी ने उनसे कहा कि आप विनोबा के पास जाओ तो राम सिंह ने कहा कि विनोबा ने ही उनके पास भेजा है। बाद में एक दिन उस शख्स ने जेपी से कहा कि बाबूजी, मैं माधो सिंह हूं। यानी उस वक्त डेढ़ लाख का इनामी बागी।
श्रीनिवास जी तब दिनमान में छपी एक रिपोर्ट का भी जिक्र करते हैं। चंबल के इलाके में सर्वोदय कार्यकर्ता सुब्बा राव के नेतृत्व में बागियों से सरेंडर की बातचीत चल रही थी। पुलिस मुठभेड़ में मारे गए बागी मान सिंह के बेटे तहसीलदार सिंह अपनी सजा पूरी कर इस काम में सुब्बा राव का साथ दे रहे थे। माधो सिंह से मिलने जाने के दौरान रास्ते में गाइड के रूप में डाकू आ रहे थे, बदल रहे थे। एक जगह ये सभी लोग जीप में बैठे। तहसीलदार सिंह जीप में पीछे बैठे। वह बंदूकधारी डकैत भी पीछे की सीट पर बैठ गया। रास्ते में तहसीलदार सिंह ने उससे कहा कि क्या बेवकूफी है, यह बंदूक तुम्हारे किस काम आएगी अगर पीछे से गोली चली तो? वजह यह थी कि उसने बंदूक की नाल जीप के अंदर की हुई थी। घने जंगल के बीच माधो सिंह के लिए अड्डे पर बातचीत और भोजन के बाद लौटते समय माधो सिंह (सर्दियों के दिन थे और वे ओवरकोट पहने हुए थे) ने.जेब में हाथ डाला और एक मुट्ठी इलायची निकाल कर वहां मौजूद लोगों के सामने पेश की थी।
8 अक्टूबर 1979 को जेपी की मौत हुई। श्रीनिवास जी याद करते हैं कि जेपी के निधन के बाद उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने पैरोल पर छूट कर माधो सिंह, मोहर सिंह और मलखान सिंह (संभवतः) पटना आए थे। जेल से रिलीज होने में कुछ विलंब होने के कारण वे समय पर पटना नहीं पहुंच सके। इस कारण मध्यप्रदेश सरकार से बहुत नाराज थे. उनसे हम लोगों की मुलाकात महिला चर्खा समिति में 10 अक्तूबर को हुई थी. वे जेपी को 'बाबूजी' के रूप में याद करते थे. तीनों छह फीट से भी ऊंचे. स्वस्थ. घनी मूंछें। उसी शाम गांधी मैदान में हुई श्रद्धांजलि सभा में वे मंच पर बैठे थे और बहुतों के आकर्षण के केंद्र भी थे। प्रसंगवश, मैंने माधो सिंह से कहा था, विशुद्ध मजाक में, कि हम लोगों को पैसे की जरूरत रहती है। कल हम बाजार में चंदा मांगने निकलेंगे। आप लोग बस हमारे साथ रहियेगा, आसानी से चंदा मिल जायेगा। माधो सिंह भी यह मजाक समझ गये, हंसते हुए बोले- एकदम चलेंगे। जेपी के सामने 1972 में 500 से अधिक बागियों ने एक साथ समर्पण किया था।
श्रीनिवास जी ऐक और घटना बताते है। जब जेपी की मौत हो गई तो उनके पार्थिव शरीर को पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में रखा गया। संघर्ष वाहिनी का मानना था कि उनके दाह संस्कार में किसी कर्मकांड की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन चंद्रशेखर इसके खिलाफ थे। संघर्फ वाहिनी ने उस रात पर्चा छपवा कर बंटवा दिया था कि जेपी के अंतिम संस्कार में किसी कर्मकांड या ब्राह्रण की जरूरत नहीं। उस समय इतनी जल्दी पर्चा छपवाना आसान नहीं था। हालांकि संघर्ष वाहिनी से जुड़े लोगों की यह इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी। लेकिन जेपी के निधन पर शोक सभा की जगह श्रद्धांजलि सभा हो, संघर्ष वाहिनी की यह बात जरूर मानी गई थी।
Comments